भारत में महिला प्रतिनिधित्व की कमी एक नैतिक एव युक्तिसंगत समस्या है। इसके अलावा यह आर्थिक प्रगति का एक गंवाया हुआ अवसर भी है। महिलाओं को पीछे रखने वाले कई कारक हैं जिनमें भारतीय राज्य की कार्यप्रणाली भी एक है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में महिलाओं की स्व-अर्जित संपत्ति के साथ बरताव भी इस समस्या का एक पहलू है। मौजूदा कानून अनैतिक होने के साथ ही संवैधानिकता पर भी सवाल खड़े करता है। इसे दुरुस्त किए जाने पर ही भारत में महिला-पुरुष संबंधों को बेहतर किया जा सकता है।

सभी देशों में कामकाजी महिलाओं की तादाद पुरुषों से कम है और इसकी बड़ी वजह बच्चों की देखभाल से जुड़ी सीमाएं हैं। लेकिन भारत में इसके तुलनात्मक आंकड़े बहुत अधिक हैं। मसलन, अगस्त 2020 में 16-64 वर्ष के उम्र समूह की केवल 8 फीसदी महिलाएं ही कामकाजी थीं। शहरी भारत में तो इस समूह की केवल 6.6 फीसदी महिलाएं ही कामकाजी थीं। भारत में सार्वजनिक जगहों पर एक नजर डालने से ही पता लग जाता है कि महिलाओं का अनुपात काफी कम है। सच तो यह है कि हम बांग्लादेश जैसे अपने पड़ोसी देश से भी खराब स्थिति में हैं।
हमें इससे बेहतर स्थिति में पहुंचने की आकांक्षा रखनी चाहिए। किसी भी तर्कसंगत पैमाने से देखें तो महिलाओं की रोजगार दर 40 फीसदी अंक के सुधार के साथ 48 फीसदी तक पहुंचाने की जरूरत है। हालांकि वह भी पुरुषों की रोजगार दर से 16 फीसदी कम ही होगा और चीन के स्तर से काफी नीचे होगा। लेकिन अगर इस लक्ष्य तक भी पहुंचना है तो भारतीय श्रमशक्ति में 50 फीसदी बढ़ोतरी करनी होगी और अगर अर्थव्यवस्था के दूसरे पहलू भी उसी अनुपात में बढ़ते हैं तो हमारा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 50 फीसदी तक बढ़ जाएगा। हम श्रमशक्ति में वृद्धि के बेहद व्यापक प्रभावों का जिक्र कर रहे हैं। जीडीपी में 50 फीसदी विस्तार होने पर हम 2.5 लाख करोड़ डॉलर से 3.75 लाख करोड़ डॉलर के स्तर पर पहुंच जाएंगे। अगर महिलाओं की रोजगार दर 8 फीसदी से 48 फीसदी के स्तर तक पहुंचाने का लक्ष्य 10 वर्षों की अवधि में हासिल कर लिया जाता है तो जीडीपी में सालाना 4 फीसदी का अंशदान अकेले इसका होगा।

महिला-पुरुष समानता को प्राय: एक नैतिक समस्या या कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की चिंता के तौर पर ही देखा जाता है। लेकिन ये आकलन बताते हैं कि यह मसला आर्थिक नीति की रणनीति में आगे और केंद्रीय होना चाहिए। भारत में उच्च वृद्धि दर को लेकर फिक्रमंद हरेक शख्स को महिलाओं के प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता देनी चाहिए। हमें अपनी नजर महिलाओं की रोजगार दर को 48 फीसदी के स्तर तक ले जाने पर रखनी चाहिए और ठोस कदम भी उठाने होंगे। ये कदम श्रम कानून, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के संपत्ति अधिकार जैसे मसलों से संबंधित हैं। ये सब एक साथ मिलकर महिलाओं को भी भारतीय समाज का पहले दर्जे का सदस्य बनाने में मदद करेंगे।
ओम प्रकाश बनाम राधाचरण वाद (2009) के उदाहरण से इसे समझते हैं। यह मामला नारायणी देवी के निधन के बाद उनकी संपत्ति पर अधिकार को लेकर था। नारायणी की शादी के तीन महीने बाद ही उनके पति की 1955 में मौत हो गई थी। पति के परिवार ने विधवा नारायणी को घर से निकाल दिया और वह अपने मां-बाप के पास लौट गईं। उनके माता-पिता ने उन्हें पढ़ाया-लिखाया और फिर उनकी नौकरी लग गई। वर्ष 1996 में जब उनकी मौत हुई तो उन्होंने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी। जिसके बाद उनकी संपत्ति पर अधिकार को लेकर उनकी मां एवं उनके दिवंगत पति के घरवालों के बीच विवाद छिड़ गया। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया कि नारायणी देवी की संपत्ति पर उनके पति के घरवालों का ही अधिकार बनता है। इस तरह जिस परिवार से उन्हें 1955 में ही बाहर निकाल दिया गया था और फिर उन्होंने अपनी वर्षों की मेहनत से कुछ संपत्ति खड़ी की, उस पर उसी परिवार के लोगों का अधिकार हो गया। इसकी वजह यह है कि बिना वसीयत वाली संपत्ति के उत्तराधिकार में महिला के परिवार की तुलना में पुरुष के खानदान और महिला की शादी जिस परिवार में हुई है, उसे वरीयता मिलती है। अगर नारायणी देवी एक पुरुष होतीं तो ऐसा नहीं होता। इसी तरह अगर वह ईसाई, पारसी, यहूदी या मुसलमान होतीं अथवा गोवा राज्य की निवासी होतीं तो भी उनके साथ ऐसा बरताव नहीं होता।एनआईपीएफपी के अध्येता देवेंद्र दामले ने ‘हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत संपत्ति के हस्तांतरण में लैंगिक भेदभाव’ विषय पर एक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा है। इस लेख में यह दर्शाया गया है कि महिलाओं के साथ भेदभाव की यह स्थिति कैसे पैदा हुई है और इसे किस तरह दूर किया जा सकता है?
इस विश्लेषण से पता चलता है कि मौजूदा कानूनी प्रावधानों में किस तरह की खामियां मौजूद हैं? यह लेख इस पर भी गौर करता है कि मौजूदा कानून संविधान में विहित समानता एवं भेदभाव-रहित आचरण की अवधारणा का किस हद तक उल्लंघन करता है। मौजूदा कानून अन्य धर्मों की महिलाओं की तुलना में हिंदू महिलाओं को कमतर दर्जा देता है। साथ ही यह कानून महिलाओं के साथ भेदभाव रोकने संबंधी भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का भी उल्लंघन करता है।
संविधान के अनुच्छेद 15(1) के तहत भारतीय राज्य अपने नागरिकों के बीच महज लिंग, जाति, धर्म एवं जन्म-स्थान के आधार पर विभेद करने वाले कानून नहीं बना सकता है। ममता दिनेश वकील बनाम बंसी वाधवा वाद (2012) में बंबई उच्च न्यायालय ने कहा था कि पुरुषों एवं महिलाओं को संपत्ति हस्तांतरण की अलग-अलग व्यवस्था पूरी तरह लिंग के आधार पर भेदभाव का मामला है, लिहाजा यह कानून अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन करता है। हालांकि उच्च न्यायालय ने इस सवाल को बड़े पीठ के सुपुर्द कर दिया था लेकिन अभी तक इस पीठ का गठन ही नहीं हुआ है।

उत्तराधिकार या विरासत के मामलों में लिंग के आधार पर भेदभावपूर्ण आचरण को कई देशों में खत्म किया जा चुका है। मसलन, फ्रांस (1804), नीदरलैंड्स (उन्नीसवीं सदी के अंत), श्रीलंका (1894), जर्मनी (1905), इंगलैंड (1925) और ब्राजील (1988) में इसे हटाया जा चुका है। भारत के भीतर भी हम भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम और गोवा के संदर्भ में हालात बेहतर देखते हैं। लेकिन अब वक्त आ गया है कि हिंदू महिलाओं के संपत्ति उत्तराधिकार को भी संगत बनाया जाए।
शायद हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम का मसौदा बनाने वालों ने ऐसी दुनिया के बारे में कल्पना भी नहीं की होगी जिसमें महिलाएं काम करती हों और वे संपत्ति भी अर्जित कर सकती हैं। लेकिन आज भारत में ऐसी तमाम महिलाएं हैं जो कमाती हैं और उनकी अर्जित संपत्ति भी है। हाल के समय में राजनीतिक सोच में अधिक समझदारी दिखी है। वर्ष 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को संशोधित कर परिवार की बेटियों को भी संपत्ति में अधिकार दे दिए गए। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में 11 अगस्त, 2020 को दिए अपने एक निर्णय में कहा है कि 2005 का यह संशोधन कानून में बदलाव होने के पहले से भी प्रभावी माना जाएगा।
जब भारतीय राज्य संपत्ति अधिकारों पर महिलाओं के साथ समान बरताव करता है तो उससे महिलाओं को काम करने का प्रोत्साहन मिलेगा। समाज एवं राज्य में ऐसे बदलाव की जरूरत है ताकि महिलाओं की रोजगार दर में 40 फीसदी वृद्धि के लक्ष्य को हासिल किया जा सके।