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Earth Day

10 खतरे जो नाश कर सकते हैं धरती का

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पृथ्वी दिवस पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों पर कोरोना की छाया है। इसी कारण यह पूरे विश्व द्वारा मनाया जाने वाला पहला ‘डिजिटल अर्थ डे’ बन गया है। यह पृथ्वी दिवस की पचासवीं वर्षगांठ भी है। 22 अप्रैल 1970 को अमेरिका के लगभग दो करोड़ लोग, जो उस समय अमेरिका की आबादी के दस फीसद के बराबर थे, पर्यावरण की रक्षा के लिए पहली बार सड़कों पर उतरे थे। अमेरिकी जनता की इस पहल को आधुनिक पर्यावरण आंदोलन का प्रारंभ माना जाता है। इस शुरुआत के समय किसी ने सोचा तक नहीं था कि पृथ्वी दिवस दुनिया के सबसे बड़े नागरिक आयोजन का रूप ले लेगा। वर्ष 2020 के लिए पृथ्वी दिवस का मुख्य विषय है- जलवायु परिवर्तन के बारे में कार्रवाई। जलवायु परिवर्तन आज समस्त प्राणी जगत के अस्तित्व के लिए बड़ी चुनौती है।

जलवायु परिवर्तन के कारण मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभाव को लेकर पर्यावरणविद चिंतित हैं। न्यू इंग्लैंड जर्नल आफ मेडिसिन में जनवरी, 2019 में प्रकाशित एक बहुचर्चित शोधपत्र में जलवायु परिवर्तन और मानव स्वास्थ्य के संबंध को रेखांकित करते हुए कुछ चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए गए थे। 1971 से 2010 की अवधि में वातावरण और सतह के निकट के समुद्री तापमान में हुए परिवर्तन में से दो तिहाई बदलाव मानवकृत जलवायु परिवर्तन का नतीजा थे। अगस्त 2018 वह लगातार चार सौ छह वां महीना था, जब औसत वैश्विक तापमान सदियों से चले आ रहे औसत तापमान से कहीं अधिक था। औसत वैश्विक तापमान में 0.2 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की दर से वृद्धि हो रही है। औद्योगीकरण पूर्व काल में कार्बन डाइआक्साइड का स्तर 280 पीपीएम (पार्ट पर मिलियन) था, जो अब 410 पीपीएम तक पहुंच गया है। स्थिति सचमुच भयानक है। यदि दुनिया के सभी देश पेरिस समझौते के अनुसार ग्रीन हाउस गैसों को कम करने के लिए निर्धारित कदम उठाने भी लगें, तब भी वर्ष 2100 तक दुनिया के तापमान में 3.2 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वृद्धि हो जाएगी। शोधकर्ताओं का अनुमान यह है कि यदि दुनिया के औसत तापमान में वृद्धि डेढ़ डिग्री सेल्सियस के स्थान पर दो डिग्री सेल्सियस भी होती है, तो एक करोड़ लोग समुद्री जल स्तर के बढ़ने के कारण बाढ़ का खतरा झेलने को विवश हो जाएंगे।

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जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। विश्व के अनेक भागों में पड़ने वाली तेज गर्मी और लू के थपेड़ों का सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से है और ये परिस्थितियां लाखों लोगों के जानलेवा बन जाती हैं। जलवायु परिवर्तन ने अनेक बीमारियों के प्रसार को भी बढ़ावा दिया है। मलेरिया, डेंगू जैसी बीमारियां इसी का नतीजा हैं। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से श्रमिकों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और इससे उत्पादकता प्रभावित होती है। इस प्रकार यह किसी देश की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करता है। लैंसेट प्लेनेटरी हेल्थ में दिसंबर 2018 में प्रकाशित एक विश्लेषण में विश्व के तीस देशों में चालीस विभिन्न व्यवसायों में कार्यरत करीब पैंतालीस करोड़ श्रमिकों पर किए गए अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उष्ण परिस्थितियों में कार्य करने वाले श्रमिकों की उत्पादकता ठंडे देशों में कार्य करने वाले श्रमिकों की तुलना में कम होती है और इन श्रमिकों में किडनी संबंधी समस्याएं, पानी की कमी जैसी स्वास्थ्य समस्याएं ज्यादा होने का खतरा ज्यादा रहता है। जैसे-जैसे वैश्विक औसत तापमान बढ़ेगा, गर्म हवा चलने की आवृत्ति और समय में भी वृद्धि होती जाएगी। इन परिस्थितियों में हमारा शरीर हमारी रक्षा के लिए प्रतिक्रिया करेगा और हमारी श्रम करने की क्षमता घटेगी। विश्व बैंक का भी अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों के कारण 2030 तक पूरी दुनिया में करीब दस करोड़ लोग चरम निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाएंगे।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व में होने वाली वयस्कों की मृत्यु संबंधी अपने पिछले आकलन को सुधारा है। अब डब्लूएचओ का संशोधित अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य आपूर्ति पर पड़ने वाला विपरीत असर ही सन 2050 तक विश्व में करीब साढ़े पांच लाख वयस्कों की मृत्यु के लिए उत्तरदायी होगा। सन 2030 से 2050 के बीच तेज गर्मी और लू के प्रभाव, बच्चों की मृत्यु दर, मलेरिया, डायरिया और डेंगू जैसी बीमारियों के बढ़ते प्रकोप और तटीय क्षेत्रों में आने वाली बाढ़ के कारण प्रति वर्ष ढाई लाख लोग मारे जाने का डर है। पर्यावरण विशेषज्ञ डब्लूएचओ के इस अनुमान को पुरानी आकलन पद्धति पर आधारित मानते हैं, क्योंकि इसमें अन्य पर्यावरण संबंधी स्वास्थ्य समस्याओं, बीमारियों और विपरीत मौसम के कारण स्वास्थ्य सेवाओं के बाधित होने के फलस्वरूप होने वाली मृत्यु के आंकड़े शामिल नहीं हैं।

भारत के जनजीवन और अर्थव्यवस्था को जलवायु परिवर्तन बहुत गहराई से प्रभावित कर रहा है। देश में सत्तर करोड़ से ज्यादा लोग आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। भारत विश्व की ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का साढ़े चार फीसद हिस्सा उत्सर्जित करता है। जलवायु परिवर्तन से सूखे और बाढ़ के हालात बनते हैं, जिनका सीधा प्रभाव किसानों पर पड़ता है। देश की साढ़े सात हजार किलोमीटर लंबे तटीय इलाके और इन पर बसे हुए देश के प्रमुख शहर भारत को जलवायु परिवर्तन के लिए अत्यंत संवेदनशील बनाते हैं। हमारे सारे मुख्य बंदरगाह समुद्र सतह से एक मीटर या उससे भी कम ऊंचाई पर स्थित हैं। ग्लेशियरों और बर्फ की परत के पिघलने और समुद्री तापमान में वृद्धि के कारण समुद्र के स्तर में वृद्धि मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे महानगरों के लिए खतरा बनी हुई है। खारे पानी का प्रवेश भी एक समस्या है। मछुआरों के लिए जीवन कठिन हुआ है। हम अभी तक ऊर्जा के उत्पादन के लिए जीवाश्म ईंधन पर ही निर्भर हैं और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में हमारी प्रगति धीमी है। अमेरिकी सरकार के एनर्जी इन्फॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन (इआइए) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2013 में भारत की 44 फीसद ऊर्जा कोयले से प्राप्त हुई। जबकि अक्षय ऊर्जा का उत्पादन केवल तीन फीसद रहा। पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजंसी का आकलन है कि इस वर्ष (2020) के अंत तक भारत चीन के बाद कोयले का सबसे बड़ा उत्पादक और विश्व का सबसे बड़ा कोल आयातक देश बन जाएगा।

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जलवायु संकट ने भारत की अर्थव्यवस्था को न केवल इकतीस फीसद छोटा कर दिया है, बल्कि आर्थिक असमानता को भी बढ़ाया है। विश्व बैंक का यह आकलन है कि सन 2050 तक जलवायु परिवर्तन हमारी जीडीपी में तीन फीसद की कमी ला देगा और हमारी आधी आबादी के जीवन स्तर को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। पिछले दो दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण आई आपदाओं की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था को 79.5 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। केवल 2010 से 2015 की अवधि में जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुई प्राकृतिक आपदाओं के निपटान में ही भारत सरकार को तीस अरब डॉलर के बराबर राशि खर्च करनी पड़ी थी। हालात बता रहे हैं कि हमें अब पर्यावरण को बचाना है, तभी धरती बच पाएगी और हम प्राकृतिक आपदाओं को कम कर पाएंगे। अह हमें सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ाना होगा। जलवायु परिवर्तन के प्रति जन जागरूकता के बिना कोई भी कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता।

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