आदिवासियों के हक की रक्षा में वर्ष 2006 में आया वनाधिकार कानून मील का पत्थर है। इसने सदियों से वन भूमि पर वास कर रही आबादी के अधिकार को सुनिश्चित किया था। इसके साथ ही, जंगलों को नुकसान पहुंचाए बिना जरूरत के लिए जंगल के संसाधनों के उपयोग का अधिकार दिया था। आदिवासियों की पारंपरिक जीवन शैली भी जंगल पर ही आधारित रही है। तेंदुपत्ता, महुआ, बांस, चिरौंजी, लाह और करंज जैसे वनोत्पाद उनके लिए कम श्रम और बिना निवेश आय के संसाधन रहे हैं। जलावन के लिए लकड़ी और पशुओं के लिए चारे का अधिकार भी वनाधिकार कानून ने सुनिश्चित किया है। यहां तक कि पशुचारण, पशुपालन, मछली मारना और जंगल से फल-फूलों को प्राप्त करने में भी इस कानून ने बड़ी राहत दी है। पहले की तरह अब वन अधिकारियों के शोषण का शिकार नहीं होना पड़ता है।

वनाधिकार कानून के तहत वनवासियों को मिले सभी अधिकारों का सहजता से हासिल होना इस बात पर निर्भर करता है कि वनभूमि के पट्टे कितनी आसानी से जंगल के दावेदारों को नसीब होते हैं। दुर्भाग्य से झारखंड जैसे राज्य में इस पर सक्रियता से अमल नहीं हो रहा है। सालों-साल तक पट्टों के दावे पर फैसला नहीं हो पाना इसका एक चिंताजनक पहलू है। झारखंड में अभी तक एक लाख नौ हजार वन भूमि पट्टों के दावों में से मात्र 60 हजार का ही निष्पादन हो सका है। वन भूमि के वितरण की स्थिति तो और भी खराब है। प्रशासनिक जटिलता इस पर हावी होती दिख रही है। दफ्तरों के चक्कर काटने से निराश भोले-भाले आदिवासी अब आस छोड़ने लगे हैं। पहले के कई कानूनों की तरह इससे भी कुछ लोगों का मोह भंग होने लगा है।

वनाधिकार दावों का सही से निपटारा न होने की वजह से आज भी जंगल जरूरतमंदों के उपयोग की जगह विकास के नाम पर स्वार्थी प्रवृत्ति के लोगों के दोहन का शिकार बन रहे हैं। इससे वनवासियों की आजीविका कठिन होते जाने के साथ ही उनके परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों पर भी खतरा पैदा हो रहा है। वनभूमि पट्टे के दावों की अनुमंडलीय कार्यालयों में बड़ी खराब स्थिति है। आवेदन के बाद महीनों तक सुनवाई नहीं होती है। मामले सालों तक लंबित रहते हैं। जिला स्तर पर भी इनकी ठीक से समीक्षा नहीं होती है। वन अधिकारी पट्टों के सत्यापन के लिए ग्रामसभा की बैठकों की भी सरकारी अधिकारी उपेक्षा करते हैं। ग्रामसभाओं के पास भी इसके लिए पर्याप्त दस्तावेजीकरण नहीं होता है। ग्रामसभा ऐसे मामलों में सक्रियता भी नहीं दिखाती है। वनाधिकार समिति के सदस्य भी इस मामले को सामान्य सरकारी औपचारिकता मानकर ही चलते हैं। उनके पास पर्याप्त जानकारी का भी अभाव होता है। राज्य स्तर पर भी मॉनिटरिंग कमेटी की बैठक लंबे समय तक न होने के कारण मामला टलता रहता है। पेड़ों की पूजा करने वाले जनजातीय समाज का पेड़ों पर जायज हक तय करने में कोताही बरती जाती है।

कोरोना काल में वक्त की नजाकत है कि जंगल को आदिवासियों के जीवन और जीविका से जोड़ने के लिए वनाधिकारी वन भूमि के पट्टे तय करने में उदारता बरतें। आखिर हजारों वर्षों से आदिवासियों ने ही तो जंगल को बचाया है, फिर उनसे डर कैसा? मुंडा, उरांव, संताल, पहाड़िया, चेरो, विरजिया और असुर जैसे समुदाय का तो अस्तित्व ही जंगल पर निर्भर है। वे जंगल को नुकसान पहुंचाने की बात सोच भी नहीं सकते। इनके सरहुल और कर्मा जैसे पर्व भी इन्हें जंगल से विलग नहीं होने दे सकते। इसलिए अब जरूरी हो गया है कि ग्रामसभा को सशक्त बनाकर अघिक से अघिक वन भूमि के दावों का निपटारा जल्द से जल्द किया जाए। वनाधिकार समिति के सदस्यों को प्रशिक्षण देकर उन्हें पर्याप्त दस्तावेजीकरण के लिए तैयार किया जाए। राज्य स्तरीय मॉनिटरिंग कमेटी को अधिक से अधिक दावों के निपटारे के लिए बाध्य किया जाए। सामुदायिक स्तर पर भी लोगों को जागरूक करना वनाधिकार कानून की सफलता का अनिवार्य तत्व हो सकता है। वनाधिकार कानून का सही तरीके से पालन होने से लोगों को उनके वास स्थान के पास जीने के साधन मिल जाएंगे। रोजगार के लिए पलायन करने की मजबूरी नहीं होगी। आदिवासियों को अपनी जीविका के विस्तार का आधार भी मिलेगा। बस इसके लिए नौकरशाही की सही दृष्टि और उचित दृष्टिकोण की जरूरत है।