संकट में आदिवासी

आदिवासियों पर जुल्म और शोषण का लंबा इतिहास रहा है और समय-समय पर कई रूपों में यह सामने आता रहा है। लेकिन, आदिवासियों में भुखमरी अब एक बड़े संकट के रूप में उभर कर सामने आ रही है। हाल में झारखंड के बोकारो में भूखल घासी नामक एक व्यक्ति की मौत ने फिर से साबित किया कि सरकारें आदिवासियों की सुरक्षा के मोर्चे पर विफल रही है। घासी के परिवारजनों का कहना है कि पिछले कई दिनों से उनके घर में खाने के लिए कुछ नहीं था। हालांकि, यह ऐसी कोई पहली घटना नहीं है। झारखंड से ऐसे मामले लगातार आ रहे हैं। नवंबर, 2018 में पश्चिम बंगाल में कुपोषण के कारण सात आदिवासियों की मौत हो गई थी और मामला चर्चा में रहा था। 2019 में भी भूख के चलते आदिवासियों की मौत की खबरें रोशनी में आती रहीं। एक अनुमान के मुताबिक 1967 के बाद से अब तक केवल झारखंड (जो पहले बिहार का हिस्सा था) में भूख की वजह से लाखों आदिवासियों की मौत हो चुकी है। कहने की जरूरत नहीं कि देशभर में अब तक न जाने कितने आदिवासी भुखमरी के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं। इस अनचाही मौत का सिलसिला दशकों से थमने का नाम नहीं ले रहा है। हर साल देश भर में ऐसे दर्जनों मामले सामने आते हैं जब पर्याप्त खाने की कमी के कारण आदिवासी दम तोड़ देते हैं। लेकिन, विडंबना है कि हमेशा ही सरकारें और प्रशासनिक अमला कुछ और ही सच्चाई बयां करते हुए दिखता है।
साल 2018 में जब पश्चिम बंगाल के झाड़ग्राम में सबर और लोधा समुदाय के सात व्यक्तियों की मौत हुई थी, तब भी मुख्य वजह पर्याप्त भोजन का उबलब्ध न हो पाना थी। लेकिन, सरकार ने क्षय रोग को मौत का कारण बता कर पल्ला झाड़ लिया था। हाल में जब झारखंड के बोकारो में आदिवासियों की मौत हुई, तब भी सरकार ने भोजन की कमी वाली बात से इनकार कर दिया। हालांकि जांच में पता चला है कि ऐसे परिवारों में अमूमन राशन कार्ड ही नहीं है और यह सरकार और प्रशासनिक अमले की बहुत बड़ी चूक है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पोषणयुक्त आहार की कमी आदिवासियों की मौत की सबसे बड़ी वजह है। लेकिन, सवाल है कि उन्हें पोषणयुक्त आहार क्यों नहीं मिल रहा? दरअसल, यह सबसे बड़ा सवाल है और इन्हीं सवालों के जवाब तलाश कर ही किसी निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (2015-16) के अनुसार महाराष्ट्र के जनजातीय क्षेत्रों में प्रत्येक दूसरे बच्चे का विकास अवरुद्ध होने का कारण लंबे समय तक भूखे रहने से उत्पन्न कुपोषण की समस्या है। पर्याप्त पोषण आहार की कमी का ही नतीजा है कि आदिवासियों की जीवन प्रत्याशा चौंकाने वाली है। दरअसल, उनका जीवनकाल औसत भारतीय जीवन प्रत्याशा से लगभग छब्बीस साल कम है। जाहिर है, यह अपने आप में एक बड़ा सवालिया निशान है।

दूसरा, उनका जीवन अनिश्चितताओं से भरा होता है और सरकारों की नजर में आदिवासियों का मरना कोई चिंता का विषय नहीं है। कुल मिलाकर देखें तो, बात घूम-फिर कर गरीबी पर ही आ जाती है। दरअसल, मौजूदा वक्त में खेती-किसानी की बदतर हालत किसी से भी छुपी नहीं है। जाहिर है, खेती पर निर्भर रहने वाले आदिवासियों की भी खस्ता हालत से इनकार नहीं किया जा सकता है। लिहाजा, ग्रामीण इलाकों में आदिवासी भी मनरेगा में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने को मजबूर हैं। लेकिन चिंता का विषय है कि समय पर मजदूरी न मिलने के कारण वे, भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। यानी आमदनी की कमी एक बड़ी समस्या है। लिहाजा, ये गरीब आदिवासी अपने आप ही भुखमरी के शिकार हो जाते हैं। पश्चिम बंगाल के एक हजार आदिवासी परिवारों पर किए गए एक अध्ययन की बात करें तो यह पाया गया कि आदिवासी आबादी को चयनात्मक रूप से भुला दिया गया है और सार्वजनिक और शैक्षणिक दोनों ही क्षेत्रों में इनके बारे में जो भी जानकारी है, उसमें बड़ी खाई व्याप्त है। वे कौन हैं, वे कहां रहते हैं, वे क्या करते हैं, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है, उनकी सांस्कृतिक और भाषायी प्रथाएं क्या हैं, ये सभी ऐसे सवाल हैं जिनके प्रचलित उत्तर खंडित और अस्पष्ट हैं। जानकारी का यह अंतर आदिवासियों को लोकतांत्रिक रूप से उपेक्षा की तरफ ले जाता है। बाहरी दुनिया द्वारा थोप दी गई श्रेष्ठता का ही परिणाम है कि आदिवासियों ने खुद को हीन, आदिम मान लिया है और यहां तक कि अपने जीवन के प्रति उनका एक घातक दृष्टिकोण भी पैदा हो गया है। ये सभी पहलू उन्हें हाशिए पर धकेल देते हैं, यहां तक कि उन्हें सामाजिक रूप से एकजुट करने वाले कुछ रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक प्रथाओं को विशेष रूप से लोकतांत्रिक मानदंडों और मानवीय मूल्यों को छोड़ देने पर मजबूर कर देता है जो सामूहिक जीवन की एक लंबी यात्रा और अस्तित्व के लिए संघर्ष के माध्यम से विकसित हुए हैं। इसमें कोइ दो राय नहीं कि गरीबी एवं भूमिहीनता की समस्या ने उन्हें भुखमरी के कगार पर ला खड़ा किया है।

सरकारें चाहें जो भी दावा करें, आदिवासी समूह की स्थिति चिंताजनक है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। बंधुआ मजदूरी या अन्य प्रकार के शोषण का शिकार होना इनकी बड़ी समस्या है। यह कहना गलत नहीं होगा कि स्वास्थ्य एवं कुपोषण की समस्या आर्थिक पिछड़ेपन एवं असुरक्षित आजीविका के साधनों के चलते ही गंभीर हो चली है। सबसे पहले तो, जनजातीय समुदायों की भूमि और वन अधिकारों की रक्षा करने की जरूरत है, ताकि उनकी आजीविका, जीवन और आजादी की हिफाजत हो सके। जनजातीय भूमि के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार को संरक्षित किया जाना सबसे जरूरी है। दूसरी ओर, आदिवासी परिवारों में भोजन का संकट वन आजीविका पर उनकी पारंपरिक निर्भरता में कमी और राज्य में गहन कृषि संकट के कारण उत्पन्न होता है। इसके अलावा, व्यवस्थित मुद्दों और सार्वजनिक पोषण कार्यक्रमों की कमजोरी ने समस्या को और अधिक गंभीर बना दिया है। मिसाल के तौर पर पालघर के विक्रमगढ़ कस्बे में लगभग एक चौथाई जनजातीय परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सिर्फ इसलिए राशन नहीं मिल सका, क्योंकि उनके पास राशन कार्ड नहीं थे।
झारखंड से भी अक्सर ऐसे ही मामले सामने आए हैं। फिर राज्यों के बजट में पोषण व्यय में कमी भी एक समस्या है। जाहिर है, यह पोषण के प्रति सरकार की तेजी से कम होती प्रतिबद्धता का सूचक है। इस प्रतिबद्धता में संजीदगी दिखाने की जरूरत है। भोजन के अधिकार कानून के बावजूद भूख से मौतों की खबरें चिंता पैदा करती हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कैसे सरकारी दावे सिर्फ कागजों तक ही सीमित होते हैं। हर व्यक्ति तक अनाज की आसान पहुंच को सुनिश्चित करना होगा और इसके लिए दो बातें बेहद जरूरी हैं। पहली तो यह कि बेहतर राजनीतिक कार्यशीलता सरकार को दिखानी होगी। बिना किसी राजनीतिक इच्छाशक्ति के इन समस्याओं पर काबू पा लेने का हर दावा खोखला ही है। और दूसरा यह कि कैसे व्यवस्था के विभिन्न साधनों का उचित उपयोग कर नागरिकों की जरूरतों की पूर्ति की जाए।
समझना होगा कि केवल जन वितरण प्रणाली की दुकानों का होना या उचित मूल्य की दुकानों की मौजूदगी किसी राज्य में भूख की समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि सरकार को यह देखना चाहिए कि कैसे किसान को प्रोत्साहन देकर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन की संभावनाएं सुनिश्चित की जा सकती है। आदिवासियों के शोषण और उनके साथ ज्यादतियों का इतिहास पुराना होने का यह कतई मतलब नहीं है कि यह एक रवायत बन जाए।