झारखण्ड का प्राचीन इतिहास ,Ancient history of jharkhand , jharkhand ka prachin itihas
प्राचीन काल में छोटानागपुर एक पूर्ण वन क्षेत्र था। सघन वनों एवं पहाड़ियों से परिपूर्ण यह क्षेत्र कैमूर और विंध्य पहाड़ियों से घिरा था। असुर, खड़िया, बिरहोर यहां की प्राचीन जनजातियां हैं। इसके बाद कोरबा जनजाति तथा कोरबा के बाद मुंडा, उरांव, हो आदि जनजातियॉँ आकर झारखंड क्षेत्र में बसी है। इसके बाद झारखंड में बसने वाली जनजातियों में चेरों ,खरवार ,भूमिज तथा संथाल थे।
असुर झारखण्ड निवास करने वाली सबसे प्राचीन आदिम जनजाति थी। जो लोहे को गला कर आजीविका चलाने वाली असुर जनजाति ने नवपाषाण काल से लेकर उत्तर वैदिक काल तक छोटानागपुर क्षेत्र में प्रवास किया| इनके द्वारा निर्मित अनेक असुरगढ़ो के अवशेष आज भी पाए जाते हैं । यह भवन निर्माण कला में बहुत ही निपुण थे। वर्तमान की लोहा जनजाति इन्हीं के वंशज है, ऐसा माना जाता है कि वह वैदिक आर्यों का विरोध करने वाले नाग असुरों की ही शाखा थे।
वर्तमान में सिंहभूम एवं मानभूम क्षेत्र में मुख्य रूप से निवास करने वाली खड़िया जनजाति को प्रथम बस्ती का प्रमाण दक्षिणी कोयल नदी के तट पर पोरा से मिलता है। जबकि दूसरी बस्ती का प्रमाण कोटा के पास ही वीरू कसलपुर से मिलता है। कुछ इतिहासकारों एवं मानव वैज्ञानिकों का मानना है कि खड़िया लोगों के शारीरिक- सांस्कृतिक लक्षण द्रविड़ परिवार की जनजातियों से ज्यादा मिलते-जुलते हैं। अतः यह विंध्य श्रेणियों को पार कर दक्षिण भारत से इस क्षेत्र में आकर बसे होंगे । असुर और खड़िया की तरह बिरहोर झारखंड में निवास करने वाली प्राचीनतम जनजाति है।
मुंडा और उरांव झारखंड में निवास करने वाले प्रमुख जनजातियां रही है। यह माना जाता है कि मुंडा लोगों ने ही झारखंड में असुर संस्कृति को नष्ट किया था। यह लोग रोहतासगढ़ होते हुए छोटानागपुर में बस गए तथा प्रथम सदी में ऐतिहासिक नाग वंश की स्थापना महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
मुंडा जनजाति के बारे में यह माना जाता है, कि यह लोग तिब्बत से आए हैं और कुछ समय तक दक्षिण बिहार में रहें,उसके बाद उरांव , चेरों तथा खरवारो द्वारा विरोध किए जाने पर छोटानागपुर क्षेत्र में आकर बस्ती चले गए थे, माना जाता है कि मुंडा लोगों ने ही झारखंड संस्कृति को नष्ट किया । मुंडा जरासंध से संबंधित थे और महाभारत युद्ध में कौरव सेना में सम्मिलित थे।
जब चेरों, उरांव, और खरवार द्वारा दक्षिणी बिहार से इन्हें बाहर कर दिया गया था, तब यह छोटानागपुर क्षेत्र में आकर बसे । उस समय इनका नेतृत्व मदरा मुंडा द्वारा किया जा रहा था । आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार मदरा मुंडा ने सुतिया नामक व्यक्ति को मुंडा जनजाति का नेता नियुक्त किया कर दिया था । सुतिया पाहन ने अपने नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम सुतिया नागखंड रखा था तथा मुंडाओ ने नागवंश की स्थापना में सहयोग किया था।
उरांव जनजाति जिनका संबंध द्रविड़ से माना जाता है, दक्षिण भारत में आकर झारखंड में निवास करने वाले जनजाति है। ऐसा माना जाता है कि उरांव दक्षिण भारत से उत्तर पश्चिम दिशा की ओर प्रवासन करते हुए सर्वप्रथम रोहतास आज के पहाड़ी क्षेत्रों में आकर बसे थे द्रविड़ ने इसका संबंध स्थापित होने का आधार भाषा ही है क्योंकि इनकी भाषा कुडुख और कन्नड़ में समानता पाई जाती है। उरांव परंपरा के अनुसार यह लोग अपने आप को खरख का वंशज मानते हैं ,जिसके कारण यह बाद में करूख कहलाने लगे। वह घुमक्कड़ करते हुए रोहतासगढ़ पहुंचे थे।रोहतासगढ़ से चेरों एवं खरवारो द्वारा निकाले जाने के बाद उरांव दो शाखाओ में बटं गए । । एक शाखा दक्षिण गंगा के राजमहल के क्षेत्र में बस गई । राजमहल के मालेर जनजाति इन्हीं के वंशज हैं दूसरी शाखा उत्तरी कोयल की घाटी क्षेत्र पलामू में तथा छोटानागपुर खास में आकर बसी जहां इनका मुंडाओ से घनिष्ठ संपर्क स्थापित हुआ। उरांव जनश्रुतियों के अनुसार मुंडा ने इन्हें मांस खाने के लिए प्रेरित किया था, जबकि इन लोगों ने मुंडाओं को हल जोतना एवं कृषि करना सिखाया था। कालांतर में उरांव के दबाव के कारण मुंडा पश्चिमी भाग में स्थानांतरित होते चले गए।
पलामू क्षेत्र में खरवार ,चेरो ,कॉल आदि जनजातियॉं निवास कर रही थी। छोटा नागपुर में भूमिज ,संथाल , भुईयां जनजातियां भी प्राचीन समय से ही रह रही थी। इन जनजातियों में भूमिज भूमिज़ मानभूमि क्षेत्र में, हो सिंहभूम तथा भुईयां जनजाति पलामू क्षेत्र में निवास करती थी । हो जनजाति की भाषाएं तथा परंपरागत समानताएं मुद्दों से मिलती जुलती है ,जिसके आधार पर माना जाता है कि सिंहभूम में निवास करने से पूर्व हो जनजाति लंबे समय तक छोटानागपुर खास में निवास करती थी।
बहुलता की दृष्टि से छोटानागपुर में मुंडा और उरांव जनजाति, पलामू में बिरजिया जनजाति, मानभूम में भूमिज और सिंहभूम व हजारीबाग में हो जनजाति रही थी। पूर्व मध्यकाल अर्थात 8वीं से 12वीं सदी के बीच संथाल जनजाति की जनसंख्या हजारीबाग में अधिक थी जबकि पलामू में चेरो-खरवार की जनसंख्या अधिक थी। ब्रिटिश काल में संथाल परगना क्षेत्र में संथालों को लाकर बसाने से संथालों की जनसंख्या अधिक हो गई।