झारखंड की जनजाति | jharkhand ki janjati | jharkhand tribe
झारखंड की जनजातियाँ, jharkhand ki janjati,jharkhand tribe
झारखंड में जनजातीय समूह की 2011 ई जनगणना के अनुसार 8645 042 राज्य की कुल जनसंख्या का 26.2% है। ग्रुप से से ज्यादा जनजातियां का निवास करती है, जिनमें 8 आदिम जनजाति एवं 24 अनुसूचित जनजाति के रूप में चिन्हित है, आदिम जनजाति की कुल जनसंख्या 29,2359 है जो राज की कुल जनसंख्या का 2.4 प्रतिशत है । इनमें 91.7 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र एवं लगभग 8% शहरी क्षेत्र में रहते हैं,, झारखंड देश में जनजातीय की दृष्टि से देश में चौथे स्थान पर है।
निर्वाह के आधार पर जनजातियों को चार भागों में बांटा जा सकता है —
1. घुमंतू जनजाति => इसके अंतर्गत है बिरहोर,हिल, खड़िया ,जैसे जनजातियाँ आती है। इनका जीवन घूमंतू होता है और यह स्थाई व ‘टंडा‘ बनाकर रहती है, यह एक ही स्थान पर कुछ दिन ठहरती है इसके बाद दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान कर जाती है टंडा में 10 से 15 झोपड़ियाँ होती है, जो लकड़ियों से निर्मित होती है तथा इनमें वृक्ष की शाखाओं और पत्तियों और घास फूस आदिका प्रयोग होता है । भोजन के लिए कंद-मूल, फल- फुल ,मांस आदि पर आश्रित है । यह भोजन संग्रह करने में विश्वास करते हैं। इंडियन जातियों के अधिकांश बर्तन वृक्षों के पत्तों के खाना बनाने के लिए मिट्टी के बर्तनों को प्रयोग लाते हैं तथा जमीन वजटाय की तरह बड़े-बड़े सोते हैं इनकी वेशभूषा अति साधारण होती है और वॉच कहां पर कमर कन्हैया कन्हैया ‘ करैया ‘ कहते हैं
जंगल से प्राप्त लकड़ी और से यह लोग ओखली कटौती और ढोलकी आदि बनाकर हाट बाजार में बेचते हैं, जिनसे मिर्च मसाला और अन्य वस्तुओं को खरीद के लाते हैं। पशुपालन में के पशु बकरी , मुर्गी , मुरगे के अतिरिक्त कुत्ते भी होते हैं जो शिकार में इनके सहयोगी बनते हैं । इस वर्ग में कुछ लोग कृषि से भी जुड़ गए हैं, लेकिन संख्या कम है इन्हें ‘जाँघीं’ कहते हैं ‘क्षूम’ कृषि अलावा कुछ स्थानों पर स्थायी खेती भी होने लगी हैं ।
2.घुमंतू कृषक जनजाति => इसके अंतर्गत सौरिया, पहाड़िया और कोरबा जनजातियां आती हैं यह लोग भी समिति के होते हैं लेकिन इनका मुख्य व्यवसाय झूम कृषि है, बुलाकर वहां पेड़ों को साफ करके कृषि योग्य भूमि तैयार करते हैं। जब यह दूसरे स्थान पर जाते हैं वहां भी पुन: नई खेत तैयार करते हैं। किसी कार्य के लिए इनके पास धारदार औजार होते हैं । खेती के अतिरिक्त एक के भोजन में शिकार, कंदमूल फल भी शामिल होते हैं, एक की खेती को ‘कुरबा’ कहा जाता है। कुरबा से जंगल में अवैध कटाऑ बहुत हुआ है, जिसमें वन क्षेत्र को काम किया है यह पशुपालन में छोटे जिवों को पालते हैं, यद्यपि राजमहल के माल पहाड़िया अब पुरानी पद्धति छोड़कर स्थाई कृषि को अपना चुके हैं। कोरबा के पलामू क्षेत्र में स्थाई खेती करने लगे हैं।
3.कृषक जनजाति => इसके अंतर्गत संथाल ,उराव ,हो , मुंडा और भूमिज जैसे प्रमुख जनजातियां हैं, जो पूर्व में भले झूम कृषि पर आकर आज आश्रित रही हो, लेकिन बाहरी संपर्कों ने उन्हें जल्दी ही स्थायीत्व का महत्व समझा दिया और भूमि अधिग्रहण का स्थाई खेती का व्यवसाय अपनाया। अब यह लोग कृषि और पैदावार के तरीकों में अनुभवी हो चुके हैं, और हल बैल के साथ खाद पाने की महत्ता भी जान चुके हैं। कुछ लोगों ने कृषि के अलावा नगदी लाभ के लिए व्यवसाय में भी कदम रखें। अब यह जनजातियां धन प्राप्य मांसाहार करने लगी है और बहुदा पर्व आदि के अवसर पर भी सामूहिक आखेट पर जाती है।
4.शिल्प जनजाति => इसके अंतर्गत वे जनजातियाँ हैं, जो अपने जीवन यापन के लिए गृह उद्योग पर आश्रित है। महली ,करमाली , लोहरा, चीक बड़ाईक, आदि जनजातियां प्रमुख है। यह जनजातियां मिश्रित जनसंख्या वाले गांव में रहती हैं । विकास मुख्यत: संथाल और उरांव आदि बस्ती में होता है। जान इनके उत्पाद सरलता से क्रय हो जातें हैं। चीक बड़ाईक जहाँ कपड़े बुनते हैं,वहीं लोहरा और करमाली कृषि के काम में आने वाले औजारों की मरम्मत करते हैं और इस तरह जीवनयापन करते हैं।
स्पष्ट होता है कि इन जनजाति यों की जीवन शैली जटिल और श्रमशील होती है लगभग अभावग्रस्त रहती है । जनजाति होने समय के साथ परंपरागत कार्यों को छोड़कर नए व्यवसाय को अपना लिया है। कभी असुर जनजाति लौह कार्य में लगी थी। लेकिन अब मशीनी युग में हजारों की आवश्यकता घट जाने से इनोड़ैया कारण गुलाब वाले व्यवसाय को अपना लिया है। स्थाई दो से अब तक जाती हो हाथों में भी रूचि बढ़ि है। और कारखाना बहुतायात संख्या में देखे जाते हैं। चाय बागानों में जनजातीय स्त्रियां अधिक श्रम शील और सफल सिद्ध होती हो रही है। अब शिक्षा के कारण वे जागरूक हो गए हैं और जनजातीय तथा स्त्रियां सरकारी उपक्रमों में और और सरकारी कार्यालय में भी पद आसीन देखे जा सकते हैं। पारिवारिक परिप्रेक्ष्य में लगभग सभी जनजातियों के नियम एक जैसे ही है, पितृसत्तात्मक परिवार प्रणाली लगभग सभी जनजातीय में मान्य है। यद्यपि कुछ समय पूर्व तक ‘ हो’ जनजाति में मातृसत्तात्मक व्यवस्था रहिए। बाद में यह व्यवस्था पितृ प्रधान हो गई है। पैतृक संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है और कहीं-कहीं अविवाहित पुत्रियों को भी इसमें हिस्सा लेने की प्रथा है। प्रमुख जनजातियों में और उरांव में स्त्रियों पर अधिक सामाजिक बंधन थे तथा वे पूजा पद्धति शिकार एवं सभाओं में भागीदारी से वंचित थी।
झारखंड की जनजातियां आदिम समूह का विवरण निम्न है –
1. संथाल जनजाति :==> जनसंख्या की दृष्टि से संथाल जनजाति झारखंड की सबसे बड़ी जनजाति है। यह मुख्य रूप से झारखंड के संथाल परगना प्रमंडल क्यों धनबाद, बोकारो, हजारीबाग, गिरिडीह, चतरा कोडरमा, पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम आदि जिलों में निवास करते हैं। प्रजातीय दृष्टि से इन्हें प्रोटो–अस्त्रोल्यड श्रेणी में रखा जाता है। इनकी अपनी भाषा ‘संथाली’ एवं अपने लिपि ‘ओलचिकी ‘की है। यह 12 गोत्र में विभाजित है जो मुर्मू हंसदा, सोरेन , हेंब्रम, किस्कू,बासके ,बेसरा ,पोरिया, टुडू ,गेंडुवार,चोड़े एवं मरांडी।
संथाल सुव्यवस्थित गांव में रहते हैं । गांव के बीच में इनका ‘ मांझीथान ‘ होता है ।जहाँ गाँव का मांझी पूजा पाठ करता है।,माँक्षीथान ‘ माँझी हड़ाम बोंगा का निवास माना जाता है। गाँव की पंचायतें प्रायः यहीं पर बैठती हैं । गांव के बाहर एक किनारे सखुआ या महुआ पेड़ों के झुरमुट के बीच ‘जहेर थान ‘ होता है। जहाँ जाहेर एरा के अतिरिक्त संथालों के अन्य प्रमुख देवी देवताओं वास करते हैं ।इनका सर्वोच्च देवता ‘मरांगबुरू’ है ठाकुर जी’ भी कहा जाता है। गांव के मुखिया कर बीच मांझी थान के पास होता है।संथालों आर्थिक जीवन अन्य जनजातियाँ की तरह अभावग्रस्त होता है ।कृषि ही इनकी आजीविका का मुख्य आधार है ॰इनका भोजन एवं साधारण होता है।धान इनकी प्रमुख फसल है।चावल इनका मुख्य भोजन है और पोचा (चावल की शराब )प्रिय पेय है संथालो गोदना गोदने का प्रचलन या जाता है ।पुरूष के बाएँ हाथ में सिक्का का चिन्ह होता है।बिना सिक्का चिन्ह वाले पुरूष के सा समाज की कोई लड़की विवाह करना नहीं चाहती है तो संथाली समाज बर्हिर्विवाही गोत्रों में विभक्त है,सगोत्रीय वाह एक गंभीर अपराध समझा जाता है।गोत्र चिन्ह के प्रति असीम श्रध्दा एवं अज्ञातभय भाव बना रहता है।गोत्र चिन्ह को मारना ,नष्ट करना या खाना वर्जित है।
संथाली जाति में अनेक प्रकार के विवाह का प्रचलन है जैसे किरिंग (बहू), बापला, किरिंग जबाई ,इतु ,निर्बोलोक,टुनकी बापला ,घर दी जमाई ,सेवा विवाह ,सांगा विवाह आदि ।किरिंग बापला सर्वाधिक प्रचलित विवाह है। की ओर से कन्या पक्ष को वधू मुल्य प्रदान किया जाता है उसे ‘ पोन ‘ कहां जाता है। संथाल जनजाति मुख्य रूप से बहा या बा , सोहराई, सरहुल, करम,बंधना,एरोक ,माघसिम ,हरिहारसिम,आदि पव मनाते हैं, इनके अधिकतर पर्व कृषि एवं प्रकृति से संबंधित है।
संथाल का परिवारिक उनकी ही उनकी समाजिक इकाई होती है। प्रत्येक संथाल ग्राम में 1 ग्राम पंचायत होती है, जिसका प्रमुख मांझी होता है,। वह अपने पंचायत का सभापति भी होता है, माझी को गांव के प्रशासनिक एवं न्यायिक अधिकार प्राप्त होते हैं। वह ग्रामीणों से संबंधित सभी प्रकार के विवादों का निपटारा करता है। पराणिक गांव का -उप प्रधान होता है, जो मांझी की सहायता करता है। मांझी का एक और सहायक जोगमांझी होता है , समाज के लोगों के आचरण पर निगाह रखता है , वह वैवाहिक समस्या को सुलझाने में सहायता करता है । जोगमाँझी को संथाली युवक युवतियों का सरदार भी कहा जाता है , मांझी की अनुपस्थिति मैं उसके कार्यों का निष्पादन प्रमाणिक करता है। समाज में लोगों से संबंधित सभी प्रकार की सूचनाओं का एकत्रीकरण गोड़ेत करता है , वह संदेश वाहक के रूप में सभी प्रकार सूचनाओं का संप्रेषण उच्च अधिकारियों को करता है ।
5-8 गांव पर एक देशमांझी होता है ऐसे विषय जिनका निपटारा ग्राम स्तर पर नहीं हो पाता उन विषयो को मांझी द्वारा देशमांझी के पास कार्य निपटारे हेतु भेज दिया जाता है , 15 से 20 गांव को मिलाकर परगना का निर्माण होता है । इसका प्रधान परगणैत कहलाता है । यह संथाल समाज की सर्वोच्च प्रशासनिक एवं न्यायिक संस्था है, वैसे विषय जिनका निपटारा मांझी अथवा देश मांझी के द्वारा नहीं हो पाता तो उसका समाधान पर परगनैत द्वारा किया जाता है। परगनैत एक गांव से अधिक गांव के बीच उत्पन्न विवादों का निपटारा करता है। संताली समाज में अपराध के लिए आर्थिक सामाजिक तथा शारीरिक दंड का प्रावधान है।सगोत्रीय विवाह , विजातीय विवाह, गैर जनजातीय,यौन अपराध के लिए तथा अन्य गंभीर अपराधों के लिए सबसे कठोर सजा विटलाहा ( सामाजिक बहिष्कार) का प्रावधान है। छोटे अपराध के लिए जुर्माना, भोज- भात की व्यवस्था करने का दंड दिए जाते हैं। दोषी व्यक्ति को समाज के समक्ष क्षमा याचना के साथ लोगो को सामूहिक रुप से भोज की व्यवस्था करनी पड़ती है, उसके बाद दोषी व्यक्ति के अपराध समाप्त होते है, वह पुण: संथाली समाज सदस्य बन जाता
2. उराँव जनजाति :– उराव झारखंड की एक महत्वपूर्ण एवं जनसंख्या की दृष्टि से झारखंड की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है। यह मुख्य रूप से रांची ,पलामू , हजारीबाग, सिंहभूम तथा संथाल परगना क्षेत्र में पाए जाते हैं । उरांव भाषा एवं प्रजाति दोनों दृष्टि से द्रविड़ जाति से संबंधित है उराव का मुख्य पैसा कृषि है। शिकार करना इनका पेसा ना रहकर शौक बन गया । यह प्रतिवर्ष वैशाख मे ‘ विसू सेन्दरा , फागुन में फागू सेंदरा॰ और वर्षा ऋतु के प्रारंभ में ‘ जेठ शिकार ‘ करते हैं। इसके अलावा सुविधा एवं इच्छा अनुसार ‘दोराहा’ शिकार करते हैं जो अनौपचारिक होता है। उराव जनजाति में ‘पसरी’ प्रथा भी प्रचलन में है। इसमें किसी को हल बैल देकर मदद करने के बदले उसे खेत जोतने और कोड़ने में सहायता मिलती है। या फिर मेहनत का विनिमय होता, एक दूसरे के कृषि कार्य में सहयोग करते हैं। पहले इनमें पाचा पद्धति प्रचलन में खूब था। युवा गृह के धांगर महतो के माध्यम से युवको की मदद मिल जाती थी , बदले में खाने को और हड़िया पीने को दे दिया जाता था। अब नकदी रकम तय कर ली जाती है ।’घर -दी -जमाई व्यवस्था की मदद पाने के लिए की जाती है। एक शौकिया प्रथा है जिसमें कोई रहने खाने की व्यवस्था पर धांगर की तरह मजदूरी करता है। परिवार उराँव जनजाति का मूल एवं सबसे छोटी सामाजिक इकाई है, इनका परिवार पितृसत्तात्मक एवं पित्रवंशीय होता है। उराव कई टोटेमिक गोत्रों में बँटे हुए हैं। जिन्हें ‘किली‘ कहा जाता है। तिर्की ,कच्छप, मींज , खलखो,एक्का ,,खाखा,केरकेट्टा ,लकड़ा,टोप्पो ,कुजूर,आदि इनके प्रमुख गोत्र हैं, इनमें अनेक प्रकार के विवाह देखने को मिलता है। ये ‘ संमग्रामा ‘ विवाह के सिद्धांत को नहीं मानते हैं। किसी गांव में लड़का लड़की का विवाह पसंद नहीं किया जाता है। ये आपस में कृत्रिम ढंग से नाता स्थापित करने के लिए ‘सहिया ‘का चुनाव करते हैं। इसे सहीयारों कहते हैं, यह नाता बहुत सुद्रढ़ होता है । प्रत्येक 3 वर्ष धन कटने के बाद ‘ सहिया चयन समारोह ‘ होता है।गाँव की कुँवारी लड़कियाँ आपस में ‘गोई‘या ‘ करमडार ‘आदि के रूप में मित्रता बनाती है,इसी प्रकार लड़को में मित्रता स्वरूप ‘लार’या ‘संगी’ है।विवाह के बाद उनकी पत्नियां भी एक दूसरे को ‘लारिन ‘या’सगिनी ‘कहकर बुलाते हैं।
3. मुंडा जनजाति :- मुंडा जनजाति झारखंड में कोलेरियन एरिया समूह की एक सशक्त और शक्तिशाली जनजाति है। झारखंड में आबादी की दृष्टि से तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है। प्रजातीय दृष्टि से मुंडा को प्रोटो ऑस्ट्रो लाइट समूह में रखा जाता है। इनकी भाषा मुंडारी ऑस्ट्रोएशियाटिक भाषा परिवार के अंतर्गत आती है, यह अपनी भाषा को ‘होड़ो जगर ‘भी कहते है इनका मुख्य निवास स्थल हजारीबाग , पलामू, गुमला, गिरिडीह, सिंहभूम , संथाल परगना आदि है। झारखंड के मूल निवासी हैं, और झारखंड क्षेत्र 600 ईसा पूर्व हुआ था मोटो केयर मुंडा ओके अनेक गोत्र होते हैं, आईद , कांडुलना , केरकेट्टा , टूटी, डुंगडुंग . तिर्की , तोपनो, पूर्ति बारला,बागे , बलमूचू, बेंगरा, बोधरा, भेंगरा सूरीन, आदि मुंडा जनजाति के प्रमुख गोत्र हैं।
इनका मुख्य देवता सिंहबोंगा है, ग्राम देवता कामदेवता हातुबोंगा तथा पहाड़ देवता बुरूबोंगा है देशाउली गांव की सबसे बड़ी देवी है, इन देवी देवताओं को को खुश रखने के लिए पाहन सरना पूजा करते हैं,। प्रत्येक घर में ओड़ाबोंगा(कुल देवता ) परिवार का मुखिया पूजा करते हैं ।मुंडा ‘ टोटेम ‘ (इष्ट चिन्ह ) की पुजा करते है। मुंडा के मौके पर सरहुल मां करमा, सोहराईमाघे ,फागु,नवाखानी ,जीतिया ,अनौबा आदि हैं ।अधिकांश पर्व कृषि और प्रकृति से जुड़ा है। फागू पर्व के समय सामूहिक शिकार का आयोजन किया जाता है। सरहुल को ‘बा‘ पर्व एवं फूलों का पर्व कहा जाता है। धान रोपनी के समय ‘रोआपुना ‘और नए अनाज घर आने पर ‘जोमनवा ‘ पर्व विशिष्ट रूप से मनाया जाता है अषाढ़ खेत जुताई और चौरसीकरण के पहले ‘बतौली (छोटा सरहुल )‘ पर्व मनाया जाता है।
इनके गांव की मुखिया को ‘हातुमुण्डा ‘ या ‘मुंडा ‘ कहा जाता है, धार्मिक प्रधान ‘पाहन‘ कहलाता है। मुंडा पूरे गांव का प्रतिनिधित्व करता है। वह ग्रामीणों से लगान वसूलता है। गांव में विधि व्यवस्था बनाए रखता है तथा गांव के विवादों का निपटारा करता है। पाहन गांव की कल्याण ,कुशलता, एवं सुरक्षा के लिए देवी देवताओं का पूजन -अर्चन करता है तथा बलि चढ़ाता है । पाहन के सहायक को “पुजार” या “पनभरा” कहते है। पाहन को थोड़ी लगान मुक्ति भूमि मिली रहती है ,जिसे डाली कटारी भूमि कहते हैं थे एक प्रकार की और सेवा भूमि उसे मिलती है इसे भूत लेखा कहते हैं ,उसकी उपज या आय से भूत प्रेतकी पूजा व्यवस्था से प्रेत की पूजा होती रहती है कई गांव को मिलाकर अंतरग्रामीण पंचायत बनती है जिसे ‘पड़हा पंचायत’ कहते , गांव -गांव के बीच झगड़ों का निपटारा इनका प्रधान ‘मानकी ‘ कहलाता है।यह मुंडा का सर्वोच्च न्यायपालिका और विधायक का माना जाता है इसमें पड़हा राजा ,हैं । दीवान ,ठाकुर ,कोतवार,पांडे ,लाल , करता आदि अधिकारी होते हैं, मुंडा का मानकी का पद वंशानुगत होता है।
4. हो जनजाति :– जनसंख्या की दृष्टि से चौथी बड़ी जनजाति हो जनजाति है। जो प्रोटो ऑस्ट्रोलाइड श्रेणी से संबंधित है, कुछ विद्वान हो जनजाति को मुंडा जनजाति का ही अंश मानते हैं, इनकी भाषा ‘हो ‘मुंडारी तथा संथाली से काफी मिलती है जुलती है। वर्तमान समय में इन्होंने अपने लिपि बारड.चिती बनाई गई है। झारखण्ड में मुख्य रुप से पूर्व एवं पश्चिम सिंहभूम सरायकेला खरसावां जिला में निवास करते हैं। हो गांव मालभूमि या कटक पर बसे होतें हैं। कुछ गांव के बीच में अखड़ा मिलता है , जिसे “एटे तुरतुड़” कहते हैं । आम सभा क्या ग्राम पंचायत की बैठक यही होती है, नाच -गान कथा – वार्ता के माध्यम से मनोरंजन और प्रशिक्षण दोनों उद्देश्य की पूर्ति होती है । कुछ गाँव में गीति ओड़ा भी पाए जाते हैं ,जहाँ अस्त्र- शस्त्र और वाद्य यंत्र रहते हैं ।गाँव के छोर पर ‘जाहेर‘ मिलता है।कोल्हान में गाँवो कपीड में बांटा जाता है ,प्रत्येक पीड़ का एक मानकी होता है।मानकी व्यवस्था को अंग्रेजों ने भी मान्यता दे रखी थी ,इनके रसोईघर के एक कोने में ‘आदिग‘ होता है ,जो पूर्वजों का पवित्र स्थान होता है। हो की जीविका का मुख्य साधन खेती है। इनकी भूमि की तीन श्रेणियां होती है:—-
🙁 1)बेड़ो :=> बेड़ो जो निम्न भूमि एवं उपजाऊ होती है ,
(2) वादी => वादी अर्थात धन खेती
(3) गोड़ा भूमि => जिसमें मोटे अनाज उपजाए जाते हैं और यह कम उपजाऊ होती है ।
‘ इली ‘ हो का प्रिय एवं पवित्र पेय पदार्थ है,देवी-देवताओं को भी ‘ इली ‘चढ़ाते हैं।ह पितृसत्तात्मक एवं पित्र वंशीय होता है, हो अनेक गोत्रों में विभाजित होता है, जिनमें बोदरा, बीरूआ , पिंगुवा, बोयोपाई, बिरउली, बालमुचू , बागे,बड़ाय ,गागराई,जामु लुगुन लागुरी आदि प्रमुख है, हो समाज में मुख्य रूप से पांच प्रकार के विवाह देखे जाते हैं:-:–
(1) आंदि बापला
(2) दिकू आंदि
(3) ओपोरतिपि
(4) राजी खुशी विवाह
(5) अनादर विवाह
(6) सेवा विवाह
(7) गोलट विवाह
( 8 ) घर जमाई विवाह
आंदि विवाह बहुत प्रचलित एवं लोकप्रिय है, वर वधु को गोंनोंग या पोन कहा जाता है।गैर-जनजातियों के साथ विवाह को दीकू आदि कहा जाता है। हो जनजाति अंतरगोत्रीय विवाह को निषेध माना जाता है।प्रायः वैवाहिक संबंध बनाने का प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से किया जाता है इस जनजाति में एक पत्नी परंपरा प्र चलित है किंतु बहुपत्नीक की परंपरा भी देखने को मिल जाती है। विदुर और विधवा के ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है। बोंगा पूजा हो धर्म का सार है । सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा है, इसके अलावा
अन्य देवी-देवताओं में देसउलीया पाहुई बोंगा ( ग्राम देवता), ओटी बोड़म ( पृथ्वी देवता) , मरंगबुरू नागे- बोंगा आदि प्रमुख है। यह सूर्य, चंद्र, नदी और पहाड़ के साथ दुर्गा काली और हनुमान के उपासक होते हैं. हो के मुख्य पर्व त्योहारों में माघे ,बाहा,हेरो,बताउली ,दमुराई (धनरोपी),जोमनामा ,कोलोभ आदि हैं , प्राय: सभी पर्व कृषि एवं प्रकृति से जुड़े हुए हैं ,माघे हो का मुख्य पर्व माना जाता है।
5. खड़िया जनजाति :– झारखण्ड में खड़िया जनजाति का निवास प्राचीन काल से रहा है । वैसे इनका मूल निवास का मगध एवं रोहतास क्षेत्रमे माना जाता है, झारखंड में इनका निवास, गुमला ,सिंहभूम हजारीबाग और मानभूम में है । झारखंड के अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, और असम में भी पाए जाते हैं। प्रजातीय दृष्टि से यह प्रोटो ऑस्टेलायड श्रेणी में आते हैं, की भाषा खड़िया मुंडारी भाषा की एक शाखा है जो ऑस्ट्रिक एशियाटिक भाषा परिवार से संबंधित है।
खड़िया के तीन प्रमुख वर्ग हैं:–
(1) पहाड़ी खड़िया
(2) ढेलकी खड़ियां
(3) दूध खड़िया
इनमें पहाड़ी खड़िया सबसे अधिक पिछड़ा एवं दूध खड़िया सर्वाधिक उन्नत है।
ढेलकी और दूध खड़िया एक साथ रहते हैं” पहाड़ी खड़िया तो बिहड़ क्षेत्रों में चोटी ,ढाल ,और गिरीपद में- “लूट लाओ और कुट खाओ”- की जिंदगी बसर करते हैं । खड़िया जनजाति गोत्र पाए जाते हैं, जिनमें कीरो, कुल्लू, गुलगू, जस, बरलिया , चाहा, टेसा,टोपो,टोपनो ,डुगडुंग, मुरु, भुइयाँ, विलुंग, सोरेंग ,हेम्ब्रोम,आदि प्रमुख है। इस जनजाति की वैवाहिक परंपरा में गोत्र प्रणाली का महत्वपूर्ण योगदान है ,संगोत्रीय विवाह वर्जित। इनमें कन्या मूल्य देकर का सर्वाधिक मान्य और लोकप्रिय है। इसे ” ओलोलदाय “या सल विवाह कहते हैं।अन्य विवाह “उघरा-उघरी” (सह पलायन),तापा या तनिला (अपहरण) ढुकु चोलकी (अनाहूत) ,सगाई ,झींका,या राजी-खुशी(प्रेम-विवाह),आदि है।सगाई विधवा/ विधुर विवाह है।परित्यकता के साथ दूसरे विवाह को भी “सगाई “कहा जाता है।इसके मुख्य पर्व ‘बा बिड’,’ बंगारी ‘, कादो लेटा ‘,नयोदम’ आदि है। फागु शिकार उत्सव है,जो सभी खड़िया मनाते है।इस अवसर पर ‘ पाट ‘ और बोराम की पूजा करते हैं तथा सरना मे बलि चढ़ाते हैं।”बा बिड “बीजारोपण का पर्व है ।यह सार्वजनिक त्योहार है।यह नया अन्न या चावल खाने के पहले नयोदेम या ‘धाननुआ खिया ‘ पूजा पूर्वजों ‘ को अर्पित करने का पर्व है।
इनके यहा ग्राम पंचायत होती है,गाँव में एक मुखिया होता है,जो प्रधान कहलाता है। उसके सहायक को ‘ नेगी ‘ कहते हैं। संदेश वाहक भी होता है जिसे ‘ गंडा ‘कहतें हैं। पंचायत का मुख्य कार्य जाति के रीति-रिवाजों को निर्धारित करना, उनका संचालन नियंत्रन करना, उसके उल्लंघन करने वालों को दंडित करना, निषादों का खंडन,यौन संम्बध,उत्तराधिकार के झगड़ो को निपटाना आदि है किसी दोष के कारण निष्कासित व्यक्ति को या परिवार को पुनः समाज में शामिल करना, उनके समाज में खानपान में जातीय समाजिक शत्रु समझा जाता है। समगौत्र यौन सम्बंध सामाजिक शत्रु माना जाता है,डायन को ‘डोकलो सोहोर‘ महासभा होती है,जो मुंडा उराँव के पड़हा पंचायत की तरह कार्य करती है। वर्तमान में खड़िया समाज में परिवर्तन आया है, इनका जीवन स्तर ऊपर उठाया, इसमें राजनीतिक जागरूकता एवं चेतना आयी है।
6. भूमिज जनजाति :=> भूमिज झारखंडी एक ऐसी जनजाति है, ऐसे जनजाति का हिंदु संस्करण कहा जाता है, इन्हें कोलेरियन समूह का माना जाता है। यह प्रजातिय दृष्टि से प्रोटो-आस्ट्रोलायड वर्ग में रखे जाते हैं। इन्हे “धनबाद के सरदार ” के नाम से जाना जाता है।इनकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 209448 है जो राज्य की जनजातिय जनसंया का 2.4% है । इनका निवास स्थान सिंहभूम, हजारीबाग, रांची, धनबाद आदि जिले हैं। इनकी अपनी भाषा मुंडारी है, लेकिन यह कहीं-कहीं मिश्रित भाषी भी देखे जाते हैं, घने वन में रहने वाले भूमिज “चुहाड़ “ उपनाम दिया जाता है भोज के अपनी जाति पर। भूमिज की अपने जातीय पंचायत होती है , इसका मुखिया प्रधान कहलाता है। यह पद वनसा नुगत होता है । गांव वाले के सारे विवाद का निपटारा यही पंचायत करती है इसके अपने परंपरागत नियम कानून है इनकी पर अब्बा के लिए संपत्ति का बंटवारा भाइयों बराबर हो और पुत्र के गाने पर पुत्री को हक मिलने उसका पति उसके साथ ससुराल में आकर रहे इनमें सगोत्र विवाह वर्जित है और इसका उल्लंघन अपराध माना जाता है वैभव चार गंभीर अपराध माना जाता है गडरिया रख संबंधियों के बीचयौन दूसरी जाति और जनजाति के साथयौन बंद को गंभीरता से लेते हुए व्यक्ति को समाज से निष्कासित जाता है वर्तमान शहर में इनके अनेक परिवर्तन देखे जाते हैं सरकारी पंचायत की स्थापना से इनकी ग्राम पंचायतें कमजोर हुई हैं।
7. असुर जनजाति :=> असुर झारखंड की लघु आदिम जनजातियों में से एक है इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 22459 है जोधा राज्य की जनजातियां जनसंख्या का 0.26%है। असुरों को सिंधु सभ्यता के प्रतिष्ठा पार्क के रूप में माना जाता है। ऋग्वेद ,उपनिषद आदि ग्रथों में असुरों का जिक्र मिलता है। प्रजातीय दृष्टिकोण से असुर को प्रोटो- आस्ट्रोलायड श्रेणी में रखा जाता है। इनकी भाषा असुरी है जो ऑस्ट्रोएशियाटिक ( आग्नेय ) भाषा परिवार से संबंध रखती है। वर्तमान में यह भाषा आदिवासी समुदाय में विलुप्त प्रायः हो गया है। असुरी भाषा को मालेय भाषा भी कहते हैं, प्रमुख निवास स्थल पाट क्षेत्र है जो गुमला, लोहरदगा , लातेहार तथा पलामू जिले के अंतर्गत स्थित है। इनकी तीन उपजातियां वीर असुर, बिरजा असुर और अगरिया असुर पाई जाती है। आदि काल से ही असुर लौह कर्मी रहे। लोहा गलाने इनका पारंपरिक पेसा और आजीविका का एकमात्र साधन था। वर्तमान में यह कृषि एवं पशुपालन कार्य करते हैं। ये सुबह के खाने को ” लोलो घोटो जोमेकू” और शाम के खाने को “यारी घोटो जोमको ” कहते हैं। हड़िया “बोथा “ या “झरनई” कहा जाता है । असुर प्राय: संयुक्त परिवार में आते हैं किन्तु एकाकी परिवार भी पाया जाता है । इनका समाज पितृसत्तात्मक एवं पित्रवंशीय होता है। असुर जाति कई गोत्रों मेंबँटी हुई है । बेंग, इंदवार, टोप्पो,खुसर , केरकेट्टा,ठिठइयो ,बारवा ,बघना,आइन्द,ऊलू,आदि मुख्य गोज्ञ है। असुर गोत्र को पारस कहते हैं, असुर समाज में ” चामबंदी “ संस्कार का रिवाज है।
सुरक्षा के लिए शिशु को चमड़े का धागा पहनाया जाता है, जो बहुधा विवाह के समय खुलता है, असुरों में वधू मूल्य( डाली टका ) देने की प्रथा है। असुरों में “इदी-मी” (इदी-ताई-मा ) विवाह की अनोखी विधि है। इसमें लड़का लड़की बिना विवाह की औपचारिकता निभाए पति-पत्नी की तरह रहने लगते हैं किंतु कभी ना कभी उन्हें शादी के रसम को पूरा करना पड़ता है। असुर धर्म में सिंग बोंगा सर्वश्रेष्ठ देवता है। इनके अन्य प्रमुख देवता मरग बोंगा, धरती माता , दुआरी, पाटदरहा,तूसहुसीद आदि है। सोहराय , सरहुल,फगुआ,कथदेली,नवाखानी , आदि इनके प्रमुख पर्व हैं,पूजा में ‘बैगा ‘ और उसका सहायक सुबारी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
8. बंजारा जनजाति :=> बंजारा एक घुमक्कड़ जनजाति है की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 487 है जो राज्य की जनजाति क्या का 0.01 प्रतिशत झारखंड के लगभग सभी क्षेत्र में देखे जाते हैं लेकिन इनका मुख्य केंद्र स्थल संथाल परगना प्रमंडल के राजमहल और दुमका क्षेत्र में है, 1956 में इन्हें अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल किया गया। यह अपनी भाषा को “लंबाडी “ करते हैं, ये चार समूहों चौहान, पवार, राठौड़ और उर्वा में विभाजित है। बंजारा समाज में वैसे तो गोत्र नहीं पाए जाते है कुछ लोग अपने को “कश्यप” तो बतलाते हैं। राय की उपाधि इनमें काफी प्रचलित है। सगाई के समय कन्या पक्ष के द्वारा वर पक्ष को कुछ बैल या नगद 140 रुपए दिए जाते हैं। वधू मूल्य( हरजी ) का रिवाज
है। इसमें नगद एवं सामान दिए जाते हैं। इसमें विधवा विवाह का प्रचलन है ।जिसे ” नियोग “ कहते हैं । नरसिंहा, ठपरा, चिंकारा, ढोल आदि इनके मुख्य वाद्य यंत्र हैं। ये “आल्हा-उदल “ को अपना वीर पुरूष मानते हैं और यह लोकगाथा बहुत लोकप्रिय है, इनके गीतों में पृथ्वीराज चौहान का उल्लेख प्राय: मिलता है। इनका अत्यंत प्रचलित लोक नृत्य ” दंड खेलना “ है, इनके अराध्या बंजारी देवी है।
9. भथुड़ी जनजाति :=> बथुड़ी भी बंजारा की तरह झारखंड की एक लघु जनजाति है। इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 3464 है जो राज्य की जनजाति है जनसंख्या कर 0.04 प्रतिशत है।यह जनजाति भूई अथवा भूईयां के पूर्वज है।बथुड़ी जनजाति अपना संम्बध क्षत्रिय से जोड़ते है।प्रजातिय दृष्टि से से प्रोटो- ऑस्ट्रेलायड समूह का प्रतिनिधित्व करने वाली बथुड़ी जनजाति का कद छोटा, त्वचा का रंग रावला से काला, बाल काला एवं सीधा होता है। यह सरदार यह मुंडा उपाधि भी धारण करते हैं। यह मुंडारी बोलते हैं, बथुड़ी की अधिकांश जनसंख्या सिंहभूम क्षेत्र के धालभूम की पहाड़ियों एवं स्वर्णरेखा घाटी में पाई जाती हैं । अधिकांश बथुड़ी भूमिहीन कृषक है, की आय का स्रोत मजदूरी है, यह टोटम के आधार पर कई गोत्रों में बँटें हुए हैं।बथुड़ी मे बर्हिगोत्रीय विवाह का प्रचलन है। यह एक पत्नी विवाही होते हैं। इनके प्रमुख गोत्र सालुका, कोक, नाग, पानीपट, हुटुक आदि है। यह नृत्य संगीत के शौकीन होते हैं।बथुड़ी मे चार प्रकार के मुख्य वाद्य यंत्र कहंगु ,वंशी ,झाल ,और मांदर होतें है । इनका सर्वश्रेष्ठ देवता ग्राम देवता है, इनके पुजारी को देहरी कहा जाता है। प्रमुख पर्व रस पूर्णिमा, देहरी पूजा, सरोल पूजा, मकर सक्रांति आदि है। इनमें गोत्र के अंदर यौन संबंध है या सगोत्रय विवाह गंभीर अपराध माना जाता है। इसके लिए गंभीर दंड का प्रावधान है। डायन तो गांव से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
10. बेदिया जनजाति :=> प्रजातीय दृष्टि के आधार पर बेदिया जनजाति प्रोटो -ऑस्ट्रोलाईड से संबंध रखती है। इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 100161 है जो राज्य की जनजातीय जनसंख्या का 1.16% है। का निवास स्थल बोकारो ,हजारीबाग रांची जिला है। इनकी अपनी कोई भाषा नहीं है। अपने निवास स्थान में प्रचलित भाषा का ही प्रयोग करते हैं। बेदिया जनजाति में वर्ण व्यवस्था पाई जाती है, जो अन्य जनजातियों में से इसे अलग करती है। बेदिया का आर्थिक आधार कृषि है। इनके जीविकोपार्जन के साधन वन्य पदार्थ और मजदूरी है। बेदिया जनजाति परंपरागत वस्त्रों को धारण करते हैं। पुरुष का परंपरागत वस्त्र ” करेया “, “काच्छा”, या “भगवा” है, जबकि महिलाओं का परिधान , ” ठेठी “ और ” पाचन “ है। इनका परिवार पितृसत्तात्मक एवं पित्रवंशीय होता है। बेदिया गोत्र मिलते हैं जो प्राकृतिक पदार्थों एवं प्राणियों के बोधक होते हैं। चिड़रा ,बड़वार, फेचा, काछिम,आहेर,बाम्बी,महुआ,सुइया ,शेरहार,आदि इनके कुछ प्रमुख गोत्र है। वैवाहिक संस्कार में लड़की पक्ष वाले को वधू मूल्य दिया जाता है, इनमें आयोजित विवाह सर्वाधिक प्रचलित है। विजातीय विवाह को निषेध माना जाता है तथा इसे “ठुकुर ठेनी” कहा जाता है।
11.बिंझिया जनजाति :=>उड़िसा और मध्य प्रदेश से आकर झारखण्ड में आकर बसने वाली जनजाति को विंध्यनिवासी कहा जाता है, क्योंकि का मूल निवास स्थल विंध्य पर्वत में रहा है। इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 14404 है जो राज्य की जनजातीय जनसंख्या का 0.17 प्रतिशत है। जिसकी से प्रोटो- ऑस्ट्रेलायड जनजाति का प्रतिनिधि करने वाली बिझिंया मुख्य रूप से रांची, गुमला, सिमडेगा जिला में निवास करती है। बिझिंया जनजाति भी बथुड़ी की तरह अपना सबंध क्षत्रिय से जोड़ते हैं।कई गोत्रों मे विभक्त बिंझिया समाज पितृवंशीय और पितृसत्तात्मक होता है , इनमे प्रमुख गोत्र कुलुमर्थी नाग ,डडूल ,काँसी ,भैरव ,कश्यप ,कौशिक,अग्निहोत्री ,करटाहा ,मांझी, प्रधान , दादुल, साहुल आदि हैं । इस तीन गोत्र कुलुमर्थी,दादुल,और साहुल टोटमी गोत्र है । इसमें बर्हिगोत्रीय विवाह प्रथा पायी जाती है। वधुमूल्य डाली कटाही की परंपरा है। बिझिंया जनजाति में विवाह के प्रमुख प्रकार आयोजित विवाह, वधू, गुलाइची विवाह, गोलट विवाह,ढुकु विवाह ,सगाई संघा विवाह ,आदि का प्रचलन है। सामाजिक जीवन में अन्य जनजातियों की तरह हमें युवा गृह नहीं पाया जाता है, और का कृषि मुख्य पेशा तथा चावल दाल मुख्य भोजन है। यह दूध पीते हैं लेकिन इन्हें हड़िया पीना वर्जित है कृषि के बाद मजदूरी कर अन्य प्रमुख पेसा है।बिंझिंया विंध्यवासिनी देवी, ग्राम्य देवी,चरडी देवी की पूजा करते हैं। का प्रमुख पर्व होली,जिउतिया, दशहरा, सरहुल, करमा, सोहराई आदि हैं।बिंझिंया तुलसी पौधा को पूजनीय मानते हैं।” बैगा ” के पुजारी होते हैं यह धार्मिक कार्य को संपन्न करते हैं।
12.बिरजिया जनजाति :=> बिरजिया जनजाति झारखंड की एक लघु आदिम जनजाति है। जो प्रोटो ऑस्टेलायड प्रजाति से संबंध रखता है । इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 6276 है जो राजकीय जनजातीय जनसंख्या का 0.07 प्रतिशत है । यह मुख्य रूप से लातेहार से बरवाडीह, गारू, महुआडांड़, बालूमाथ, गढ़वा का भंडरिया, गुमला जिला के बिशुनपुर,रायडीह तथा लोहरदगा जिले के सेन्हा एवं किस्को प्रखंड में प्रखड में पाए जाते हैं। बिरजया जाति का मुख्य पेसा खेती है। पहाड़ के ऊपर पाट- क्षेत्र में बसे बिरजिया स्थानांतरित खेती करते हैं। काश्तकारी इसका मुख्य उप पेशा है । सुबह के खाने को ” लुकमा “, दिन के खाने को ” कलवा “ और रात के खाने को ” बियारी ” कहते हैं।तेलिया बिरजिया को सामाजिक व्यवस्था के अनुसार दो भागो सिंदूरियां और तेलिया में बाँटा गया है। तेलिया बिरजिया के उपभाग दूध बिरजिया और रस बिरजिया है। सिंदूर बिरजिया विवाह में सिंदूर का प्रयोग करते हैं जबकि तेलिया बिरजिया सिंदूर का प्रयोग नहीं करते हैं । उसी तरह दूध बिरजिया गाय का दूध पीते हैं , परंतु मांस नहीं खाते है। जबकि रस बिरजिया दूध पीते हैं और मांस भी खाते हैं। इनमें बहु विवाह प्रचलित है।
13.बिरहोर जनजाति :=> झारखंड की विलुप्त होती जा रही अल्पसंख्यक आदिम जनजाति है। यह एक घुमंतू जनजाति है। जो छोटे- छोटे समूह में परंपरा से जंगल में रह कर घूम फिर कर कंदमूल, फल फूल, आदि वन्य पदार्थों का संग्रह तथा शिकार द्वारा में अपना जीवन यापन करती है, प्रजातीय दृष्टि से इनको प्रोटो -ऑस्ट्रोलाईड समूह में रखा जाता है। यह बिरहोरी बोलते हैं, जो मुंडारी भाषा का हीं एक अंग है, भाषा विज्ञान की दृष्टि से आस्ट्रीक परिवार की ऑस्ट्रो-एशियाटिक उप परिवार में रखा जाता है। ये मुख्य रूप से , हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, रांची, सिमडेगा, गुमला, लोहरदगा, सिंहभूम , बोकारो, गिरिडीह और धनबाद में पाए जाते हैं। बिहार की बस्ती को टंडा कहा जाता है। बिरहोर छोटी-छोटी झोपड़ियों में रहते हैं,’ कुंबा’ या ‘कुरहर ‘ कहते हैं। कुछ टंडा में ” गितीओड़ा ” पाया जाता है, जो कुंवारे लड़के-लड़कियों के सांस्कृतिक स्थल होते हैं। लड़कों के गीतीओड़ा को ‘ डोंडा -कांठा ‘और लड़कियों के गीतीओड़ा को ‘ डींडी – कुंडी ‘ के नाम से जाना जाता है.। उथलू बिरहोर के त्रिभुजाकार को कुंबे भी होते हैं। बड़े कुंबे को ओड़ा -कुंबा तथा छोटे को ‘ चू-कुंबा ‘ कहते है , अधिकांश बिरहोर “लूट लाओ और कूट खाओ” की जिंदगी जीते हैं। इनका एक उपवर्ग–जांघी बिरहोर स्थायी कृषक हो गए हैं।इनकी जमीन तीन तरह की होती है– ‘बेरा'(निम्न-भूमि), ‘गोडा’ (उच्च भूमि) और ‘बादी ‘ (बीच की भूमि)।पीतल ताँबे और काँसे की कारीगरी में बिरहोर निपुण होते हैं।जीवन यापन के ढंग पर बिरहोर को दो उपवर्गो में रखा जाता है—उथलू या भूलिया ( घुमक्कड़) और जाँघी या थानियां ( आदिवासी)। उथलू बिरहोर वर्षा ऋतु को छोड़कर सालों भर छोटे-छोटे समूहों में जंगल जंगल भोजन की तलाश में घूमते रहते हैं। जाँघी स्थाई रूप से बस गए हैं और यह अपनी भूमि पर खेती करते हैं। बिहार में अनेक विवाह प्रचलित है जिनमें—
(1) नपम- बापला
(2) उड्रा-उद्री बापला
(3)बोलो बापला
(4) सिपुंदर
(5)हिरूम
(6)बेंगा -कढ़ी
आदि प्रमुख है, सिंगबोंगा इन का प्रमुख देवता है, परिवारिक देवी देवताओं में ” हेपरोम ” प्रमुख है इनके नृत्य तीन में प्रकार के होते हैं—
(1)डोंग
(2)लागरी
(3)मुतकर
14. बैगा जनजाति:– बैगा जनजाति झारखंड की एक अल्पसंख्यक जनजाति है जो प्रोटो ऑस्ट्रोलाइट प्रजाति से संबंध रखती है यह मुख्य रूप से पलामू गढ़वा रांची लातेहार हजारीबाग आदि जिलों में निवास करती है बैगा जाति में अन्य कॉल एरियन समूह की तरह टोटेमिक गोत्र नहीं पाया जाता है। ये बाघ को पवित्र पशु मानते हैं। इनमें अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित है।’लाम लेना’ विवाह को ‘सेवा विवाह’, तथा ‘ उठावा विवाह ‘ ‘राजी खुशी विवाह ‘भी इन्हे कहा जाता है। करमा नृत्य बैगा का प्रधान नृत्य है अन्य बैगा नृत्य में ‘ झरपट ‘,’ विमला ‘आदि प्रमुख हैं। पुरुष दशन या ‘ सैला’ तथा स्त्री ‘ रीना नृत्य ‘ करते हैं। इनका मुख्य देवता बड़ादेव है, जो ‘सखुआ गाछ ‘ मैं निवास करता है। अन्य देवताओं में ‘ठाकुर देव’ ,’धरती माता’, ‘आजी- दत्ती ‘, ‘रात-माई ‘, आदि है। इनका वर्ष पहला पर्व ‘ चरेता ‘ है, जो बच्चों का बाल भोज है। अन्य पर्व में ‘ बिदरी ‘ , ‘हरेली’ ‘नव भोज’ , ‘ फाग ‘ आदि है नव वर्ष पर नावा पर्व मनाते हैं ।
15.चेरो जनजाति :=> चेरो झारखंड की एक प्राचीन जनजाति है, जो प्रोटो ऑस्ट्रेलायड प्रजाति से संबंधित रखते हैं। ‘बारह एवं ‘तेरह हजारी‘ के नाम से जाना जाता है । यह मुख्य रूप से लातेहार , पलामू ,गढ़वा जिलों में निवास करते हैं।पलामू के चेरों दो अंतर्विवाही समूहों में बँटे हुए है— ‘ बारह हजारी ‘और ‘ तेरह हजारी ‘ ।बारह हजारी अपने को श्रेष्ठ मानते हैं , ऐसा कहा जाता है कि’ तेरह हजारी ‘ बारह हजारी की अवैध पत्नी के सतांन हैं। चेरो समाज में तेरह हजारी का स्थान निम्नस्तर है , लेकिन इन्हें वीर बंधिया चेरों भी कहा जाता है जिसे ‘ पारी ‘ कहा जाता है , दोनों समूह बारह समांनांतर गोत्रों में बंटे हुए हैं। इनके मुख्य गोत्र है:– छोटा मउआर, बड़ा मउआर, छोटा कुँवर, बड़ा कुँवर , महतो, मंझिया, संमबात , रौतिया आदि है। संडर ने एक गोत्र और ‘सोनहैत ‘ बतलाया है। इनमें अन्य जनजातियों की तरह गोत्र टोटेमिक नहीं होते। चेरों अपने को चौहान वंशी या चंद्रवंशी राजपूत कहते हैं, हमें विवाह के दो मुख्य ढंग है– ” .ढोला और चढ़ा “। ढोला विवाह लड़के के घर में लड़की लाकर होता है , जबकि चढ़ा विवाह लड़की के घर में जाकर होता है, चढ़ा विवाह अधिक खर्चीला होता है, जबकि ढोला विवाह गरीबों के यहां देखा जाता है।
16.चीक बड़ाईक जनजाति :=> चिक बड़ाईक झारखंड की एक बुनकर जनजाति है, यह मुख्य रूप से कपड़ा बनने का काम करती है। इन्हे “हाथों से बने कपड़ो का जनक “कहा जाता है। ये मुख्य रूप से रांची, खूंटी, गुमला, और लोहरदगा जिले में पाए जाते हैं। इनकी संस्कृति मिली जुली है, ठाकुर द्वारा विवाह,पाहन द्वारा पूजा , बलि तपावन की पद्धति, और वर पक्ष द्वारा कन्या की खोज, वधू मूल्य (गोनोड़) का प्रचलन ,नेड़ा , टोटेम गोत्र, तथा कुछ उनके पर्व त्योहारों को मनाना इनकी संस्कृति का जनजातीय विशेषता है । इनमें विधवा विवाह और पुनर्विवाह दोनों की प्रथा है। पुनर्विवाह को ” सगाई “ कहते हैं। सिंगबोंगा इनका सर्वोच्च देवता और देवी माई को सर्वोच्च देवी मानते हैं। अन्य देवी -देवताओं मे ,डिहवर देवता ,पितर देव ,नाग देव ,बाघ देव आदि हैं। वैशाख में “बड़ पहाड़ “और “सुरजाही पूजा” होती है। पहले इनके यहां नर बलि की प्रथा थी, ऊपर रोक लगा दी गई। कपड़ा बनाना, कृषि तथा मजदूरी करना इनका मुख्य पेसा है, चावल इनका मुख्य भोजन है ।
17.गोंड जनजाति :=> गोंड भारत की दूसरी बड़ी जनजाति है, इनका मूल निवास स्थान गोंडवाना क्षेत्र माना जाता है। झारखंड में मुख्य रूप से गुमला, पूर्वी सिंहभूम, सिमडेगा, लातेहार, गढ़वा, पलामू गिरिडीह, धनबाद और बोकारो आदि जिला में निवास करते हैं।इनकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 53676 है जो राज्य के जनजातिय जनसंख्या का 0.62% है। गोंड की भाषा गोंडी है, जिसे द्रविड़ भाषा परिवार का एक अंग माना जाता है। झारखंड की गोंड जनजाति बोलचाल में सादरी, नागपुरी भाषा का ही प्रयोग करती है।
गोंड की अर्थव्यवस्था वस्तुतः खेती और मजदूरी पर टिकी है, यह पहले स्थानांतरित खेती करते जिसे ‘ दीपा ‘ या ‘बेवार ‘ कहते है । इनका समाज तीन वर्ग में विभक्त है , पहला अभिजात वर्ग, जिसमें राज गोंड कहा जाता है। इसमें मालगुजार पटेल गांव की जमीन के मालिक होते हैं। मुखिया प्राय : इसी समुदाय का होता है। दूसरे वर्ग में धुर- गोंड आते हैं जो सामान्य वर्ग के हैं। यह कृषक होते हैं। तीसरे वर्ग में भूमिहीन श्रमिक मजदूर है जिसे ” कमियां “ कहते हैं। गोंड मे चार भातृदल ( फ्रेटरी ) तथा अनेक टोटेमिक गोत्र होते हैं। इसमें समगोत्रीय विवाह वर्जित माना जाता है। साथी एक ही गांव में विभिन्न वैवाहिक संबंध नहीं होता है, गोंड ” गाँव -वहिर्विवाही ” नियम का पालन भी करते हैं।प्रत्येक कुल या गोत्र ” परसापन “ नामक कुल देवता की पूजा करते है।इस कार्य को करने वाले को “फरदंग” (भाट या चाल ) कहा जाता है।इनके प्रमुख देवता ‘ठाकुर देव‘ और ‘ ठाकुर देई ‘हैं जो सूर्य का प्रतीक है,इनका पुजारी “बैगा “ कहलाता है।
18.गोड़ाइत जनजाति :=>गोड़ाईत झारखंड की एक लघु जनजाति है। गोड़ाईत को गोड़ैत भी कहते हैं। इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 4937 है जो राज्य की जनजातीय जनसंख्या का 0.06 है। ये प्रोटो -ऑस्ट्रोलाइड प्रजाति से संबंध रखता है। भाषा की दृष्टि से ये आस्ट्रिया भाषा परिवार के वर्ग मे आतें हैं,जिसे स्थानिय रूप में मुण्डा भाषा वर्ग कहा जाता है । झारखंड में यह मुख्य रूप से रांची, हजारीबाग, सिंहभूम , धनबाद, पलामू, संथाल परगना में निवास करते हैं । यह प्राचीन काल में पहरेदारी का काम करते थे। गोड़ाईत में अनेक टोटेमिक गोत्र पाए जाते हैं, जैसे– टुडू, बाघ, इंदुआर, खलको, टोप्पो आदि। यह देवी माई और पुरूविया की पूजा करते हैं , पुरूविया एक जनजातियां भूत आत्मा , जिसे में एक बार बकरे की बलि दी जाती है। बैगा इनका पुजारी होता है करमा, सरहुल, सोहराई, जितिया, नवाखानी, फागु, आदि इनके प्रमुख पर्व त्यौहार है ।
19.करमाली जनजाति:=> करमाली झारखंड की एक अति प्राचीन जनजाति है, ये पाषाण युग से ही इस क्षेत्र में निवास करते आ रहे हैं । इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 64154 है जो राज्य की जनजाति जनसंख्या का 0.74 प्रतिशत है । इन्हें प्रोटो- ऑस्ट्रोलाइड प्रजाति समूह में रखा जाता है। इनकी भाषा कुरमाली है जो ऑस्ट्रिक भाषा परिवार की है, करमाली शिल्पकार होते हैं । अस्त्र-शस्त्र बनाने में निपुण माने जाते हैं। इनका निवास स्थान हजारीबाग, संथाल परगना, रांची, बोकारो सिंहभूम आदि है। करमाली जनजातियों में अनेक प्रकार के विवाह देखे जाते हैं, जैसे आयोजित विवाह, गोलट विवाह, विनिमय विवाह, उढरी विवाह ,राजी -खुशी विवाह,ढुकू विवाह ,सांघा विवाह । इनमें वधू मूल्य को ” पोन ” या ” हथुआ ‘ कहा जाता है। ये दामोदर को पवित्र नदी मानते हैं। इनका सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा होता है । इनके धार्मिक कार्यों का संपादन करने वाला पाहन या ” नाया “ कहलाता है। इसमें गुनी ओझा पाया जाता है, जिसका पवित्र स्थल ” देउकरी “ कहलाता है । इन के प्रमुख त्यौहार सरहुल करमा, सोहराई,नवाखानी,तथा टुसू है, टुसू को ये “मीठा परब “या ” बड़का परब “कहतें हैं।
20.कंवर जनजाति :=> झारखंड में कंवर को अनुसूचित जनजातियों की श्रेणी में 31 नंबर पर 2003 मैं विधि न्याय मंत्रालय , नई दिल्ली द्वारा गजट में प्रकाशित किया गया है। प्रजातिय दृष्टि से प्रोटो – आस्ट्रोलायड वर्ग में रखा जाता है। झारखंड में कंवर गुमला, सिमडेगा, पलामू लातेहार आदि जिला पाए जाते हैं। इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 8145 है जो राज्य की जनजाति जनसंख्या का 0.09% है। इसकी भाषा ” कंवराती ” या ” कवरासी “कहलाती है।कंवर क्रय विवाह सर्वाधिक प्रचलित है, इसमें वधू- मुल्य देना पड़ता है, वर पक्ष वाले अपने वश या गोत्र को छोड़कर कन्या ढूंढते है और चयन करते है इसे ” कुटमैती “ कहते हैं।वधू मूल्य को ” सुकदाम “ कहा जाता है ।इसमे नगद रूपये ,वस्त्र के अलावे 10 खंडी चावल देना पड़ता है । जिसे “सुक मोल” कहते हैं ।कंवर सरना धर्मावलंबी होते हैं ,सर्वश्रेष्ठ देवता को भगवान कहते हैं ,जिसे ” बैगा “ कहते हैं।
21.खरवार जनजाति:=> खरवार झारखंड की एक लड़ाकू जनजाति मानी जाती है। पलामू लातेहार में इस जनजाति को ‘ का निवास स्थानअट्ठारह हजारी ‘ के नाम से भी जाना जाता है। जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 248974 है जो राज्य की जनजातीय जनसंख्या का 2.88 प्रतिशत है, इनका निवास स्थल पलामू, लातेहार गढ़वा, लोहरदगा रांची, हजारीबाग , चतरा आदि जिलों में है।इनका परम्परागत पेशा खैर वृक्ष से कत्था बनाना रहा है। पलामू एवं लातेहार ‘ 18 हजारी के नाम से प्रसिद्ध है खरवार अपने को सूर्यवंशी राजपूत हरिश्चंद्र रोहिताश्व के वंशज मानते हैं। खरवा जनजाति के मूल स्थान एवं उत्पत्ति के बारे में काफी मतभेद है, का वितरण पलामू, लातेहार, गढ़वा, लोहरदगा, हजारीबाग चतरा आदि जिलों में है। शारीरिक रूप से इनका कद मध्यम , दीर्घ कपाली, नाक चपटा ,बाल काला होता है। खरवार की भाषा ऑस्ट्रिक परिवार से संबंधित है। लेकिन वर्तमान में यह सब आता हिंदी बोलते हैं। समतल भूमि पर निवास करने वाले खरवार का गांव मिश्रित होता है। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि तथा स्थाई कृषक है। सुबह का नाश्ता लुकुमा, दिन का भोजन बियारी और रात का भोजन कलेवा कहलाता है। पितृसत्तात्मक एवं पितृ वंशीय खरवार जनजाति में एकल परिवार एवं एक विवाह परंपरा पाई जाती है। इनमें वधू मूल्य का प्रचलन पाया जाता है अर्थात आयोजित विवाह सबसे ज्यादा प्रचलित विवाह है। इसके अतिरिक्त इस इन में सेवा विवाह, अपरहण विवाह, गोलट विवाह पाए जाते हैं । खरवार अनेक उपजाति एवं टोटम आधारित गोत्रों में विभाजित है। इन गोत्रों में प्रमुख कासी , नीलकंठ, हंस गढ़िया, बेसरा, साहिल, तिर्की, चंडीयार, लोहवार आदि है। इनका मुख्य देवता सिंगबोंगा है, इनका धार्मिक प्रधान ” बैगा ” कहलाता है।
22.खोंड जनजाति:=> खोंड जनजाति झारखंड की एक लघु जनजाति है। यह जाति द्रविड़ जनजाति से संबंध रखते हैं। यह जनजाति मुख्य रूप से उड़ीसा में पाई जाती हैं, इसकी कुछ संख्या झारखंड के संताल परगना, उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल तथा दक्षिणी छोटानागपुर प्रमंडल में भी पाई जाती है। इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 221 है जो राज्य की जनजातिय जनसंख्या का 0.003 प्रतिशत है । खोंड की बोली ” कोंधी “ कहलाती है, पुराने जमाने में खोंड में नरबलि की प्रथा पाई जाती थी, जिसे मरियाह प्रथा कहा जाता था। इनके तीन समूह पाए जाते हैं । ‘ कुहिया ‘ खोंड पहाड़ी भागों मे रहते है। “डोंगरिया खोंड” निचली पहाड़ी भूमि में निवास करते हैं एवं बागवानी का कार्य करते हैं।देषिया खोंड सम भूमि या निम्न भूमि में निवास करते हैं। खोंड का एक अन्य चैथा समूह ” सीथ “कोरापुट में रहता है। कुहिया या डोंगरिया खोंड स्थानान्तरित खेती करते हैं जिसे ” पोड़चा ” कहा जाता है ।इके प्रमुख देवता रा पेनू या बेलापून है।अन्य देवताओं में ग्रामदेवता, ठाकुर देवता, ठाकुर देई, मरांग बुरू आदि है, ” नाबाबद “ त्यौहार अन्य जनजातियों की नवाखानी त्यौहार के समान है, इसमें नए चावल को पकाया जाता है।
23.किसान जनजाति :=> किसान झारखंड की एक लघु अनुसूचित जनजाति है। यह अपने को नागेशिया कहते हैं, प्रारंभ में खेती बाड़ी का काम करते थे,इसलिए इनकी पहचान किसान के रूप में बनी है । इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 37265 है जो राज्य की जनजातिय जनसख्या 0.43 %है।इनका निवास स्थल झारखंड के पलामू ,राँची ,सिंहभूम ,लोहरदगा,आदि जिलें हैं। किसान जनजाति में उच्च लिंगानुपात पाया जाता है।किसान समाज दो मुख्य भागों सिंदूरिया और तेलिया मे विभक्त है।एक वर्ग के विवाह के अवसर पर सिंदूर और दूसरे वर्ग में तेल का महत्वपूर्ण स्थान है।इनमें कई प्रकार के विवाह प्रचलित है।सर्वाधिक लोकप्रिय आयोजित विवाह होता है।बारात ले जाकर लड़की के घर में विवाह करने को “चढ़उआ ” विवाह कहते हैं।अपने घर लड़की को लाकर विवाह करने को” गुरूबां” कहते है ।
24.कोल जनजाति :=> झारखंड की 32वीं जनजाति के रूप में कोल जनजाति की मान्यता 2003 में मिली । प्रजातीय समूह की दृष्टि से कोल को प्रोटो –ऑस्ट्रोलायड के अंतर्गत रखा गया है। इसकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 53584 है जो राज्य की जनजाति जनसंख्या का 0.62 प्रतिशत है । इनकी भाषा संथाली से मिलती-जुलती बताइए जाती है, प्रारंभिक काल में कोल शब्द का प्रयोग झारखंड क्षेत्र के आदिवासियों के संदर्भ में किया गया था। झारखंड में कोल मुख्य रूप से दुमका देवघर, गिरिडीह, आदि जिले पाए जाते हैं शारीरिक संस्थाएं त्वचा का रंग सांवला से काला, बाल काले एवं घुंघराले, छोटा से माध्यम, होठ मोटे तथा नाक चौड़ी आदि है इसमें ” बी ” रक्त समूह अधिकता पाई जाती है ये सरना धर्म के अनुयायी है तथा सिंगबोगा को सर्वशक्तिमान देवता मानते हैं । कोल जनजाति अनेक टोटमी गोत्र में विभक्त है। इनके प्रमुख गोत्र हांसदा , सोरेन, किस्कू, मराण्डी ,टूडू, चैड़े हेंब्रम ,बास्को ,बेसरा,मूर्मु आदि है । पितृसत्तात्मक एवं पितृवंशीयकोल में एकल परिवारतथा गोत्र बर्हिविवाही परपरा पाई जाती है।इनमें वधु मूल्य की परम्परा भी पाई जाती है ।इसे ” पोटे ” कहा जाता है ।इनका प्रमुख देवता सिगबोंगा है।ये अनेक हिदू देवी – देवताओं की भी पूजा करते है।ये प्रकृतिवादी हैं तथा सखुआ ,महुआ ,आम आदि वृक्षों की पूजा करतें हैं।परम्परागत रूप से लोहा गलाने वाला काम ,और कृषि इनका मुख्य(कोल जनजाति ) पेशा है। कोल जनजाति में परम्परात पंचायत व्यवस्था पायी जाती है,इ मुखिया प्रधान मांक्षी कहलाता है,इनके पंचायत में जातीय ,समाजिक एवं अय विवादों का समाधान कर है।
3. मुंडा जनजाति
4. हो जनजाति
5. खड़िया जनजाति
6. भूमिज जनजाति
7. असुर जनजाति
8. बंजारा जनजाति
9. भथुड़ी जनजाति
10. बेदिया जनजाति
11.बिंझिया जनजाति